ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।


ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता। और जिन्होंने समझ लिया है कि वे जन्म से ब्राह्मण हैं, उनसे ज्यादा भ्रांत और कोई भी नहीं। उनकी स्थिति तो शूद्रों से भी गयी बीती है। शूद्र को कम से कम यह तो ख्याल है कि मै शूद्र हूं। महात्मा गांधी जैसे लोगों ने उसका भी ख्यालमिटाने की कोशिश की है। उसको भी कहा कि हरिजन है तू, शूद्र नहीं। जैसे ब्राह्मण की भ्रांति है कि जन्म से ब्राह्मण, ऐसे अब शूद्र को भी भ्रांति पैदा करवा दी है भले भले लोगों ने, जिनको तुम महात्मा कहते हो कि तू हरिजन है। हरिजन ब्राह्मण का ही दूसरा नाम हुआ। जिसने हरि को जाना वह हरिजन, जिसने ब्रह्म को जाना वह ब्रह्म, वह ब्राह्मण। हरिजन कह दिया, उसको एक भ्रांति चलती ही थी कि कुछ लोग जन्म से ब्राह्मण हैं, एक दूसरी भ्रांति पैदा करवा दी कि कुछ लोग जन्म से हरिजन हैं। अब हरिजन अकड़े हैं। क्योंकि उनको भी अहंकार जगा है ब्राह्मण होने का। ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।

मुझसे अगर तुम पूछो तो मैं कहूंगा हम सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। जन्म से तो हम सब शूद्र होते है न कोई ब्राह्मण होता न कोई वैश्य होता, न कोई क्षत्रिय होता, न कोई हरिजन होता। जन्म से तो हम सब शुद्र होते हैं क्योंकि जन्म से हम सब अज्ञानी होते हैं। फिर जन्म के बाद हम क्या यात्रा करेंगे इस पर निर्भर करेगा। सौ में निन्यानबे लोग तो शूद्र ही रह जाएंगे। सद्गुरु को न पकड़ेंगे तो शूद्र ही रह जाएंगे। सौ में से एकाध ब्राह्मण हो पाएगा। एकाध भी हो जाए तो बहुत। एकाध भी हो जाए तो काफी।

और सबसे बड़ी जो बाधा है वह यह कि हम जन्म के साथ ही मान लेते हैं कि ब्राह्मण हैं। बस, वहीं चूक हो गयी। जैसे बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, तो क्यों इलाज करवाये? क्यों चिकित्सक के पास जाए? क्यों निदान करवाये? क्यों औषधि ले? बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, बात खत्म हो गयी। ब्राह्मण तो बीमार था सदियों से, इधर महात्मा गांधी की कृपा से शूद्र भी बीमार हो गया है। उसको भी हरिजन होने की अस्मिता छायी जा रही है। यह जो हिन्दुओं और हरिजनों के बीच जगह जगह संघर्ष हो रहा है, इसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ नहीं है, ख्याल रखना, इसमें हरिजनों में पैदा हो गयी अकड़ का भी हाथ है। 

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो हो रहा है वह ठीक हो रहा है। ब्राह्मण जो कर रहे हैं वह तो बिलकुल गलत है, पाप है। मगर लोग अगर यह सोचते हों कि उसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ. है, तो गलत बात है, उसमें हरिजन में जो अकड़ पैदा हो गयी है हरिजन होने की, उसका भी बड़ा हाथ है। और स्वभावत: ब्राह्मण तो गलत रहा है सदियों सदियों से, इसलिए उसकी अकड़ तो बहुत पुरानी है, मगर ख्याल रखना, नया मुसलमान जोर से नमाज पढ़ता है। और नया मुसलमान रोज मस्जिद जाता है, पुराना मुसलमान कभी चूक चाक भी जाए। नये मुसलमान की अकड़ बहुत होती है।

तौ जो पागलपन धीरे धीरे ब्राह्मणों में तो खून में मिल गया था, जिसका उन्हें सीधा साधा बोध भी नहीं रह गया था, वह नया पागलपन हरिजनों में भी छा गया है। और उनका नया नया है। और नये रोग खतरनाक होते हैं; उनका आघात खतरनाक होता है। वे बड़ी अकड़ से चल रहे हैं। वे हर चीज में अकड़ खड़ी करते हैं। वह कहता है, हमें मंदिर में जाने दो।

अब बड़े मजे की बात है, महात्मा गांधी जीवन भर कोशिश किये कि हरिजनों को मंदिर में प्रवेश मिलना चाहिए। और महात्मा गांधी को इतनी भी समझ न आयी कि जो मंदिर में बैठे जन्मों जन्मों से पूजा कर रहे हैं उनको क्या खाक कुछ मिला है! जब ब्राह्मणों को ही पूजा करते करते कुछ नहीं मिला तो ये गरीब हरिजनों को भी उन्हीं मंदिरों में प्रवेश करवाने से क्या मिल जाने वाला है? अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा हरिजनों, भूलकर भी मंदिरों में मत जाना। जो मंदिरों में हैं उनको ही कुछ नहीं मिला, तुम अब इस झंझट में कहां पड़ रहे हो! तुम परमात्मा को विराट आकाश में खोजो, इन दीवालों में बद परमात्मा नहीं है।

लेकिन, नहीं महात्मा गांधी समझा रहे थे कि महाक्रांति है। हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश दिलवा देने से महाक्रांति हो जाएगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तो मंदिरों में बैठे ही हुए थे, इनकी जिंदगी में कौनसी क्रांति हो गयी? इनकी जिंदगी कूड़ा करकट है, उसी में तुम हरिजनों को भी सम्मिलित कर दो। और उस कूड़ा  करकट होने के लिए वे दीवाने हो गये। दंगे फसाद शुरू हो गये।

इस दुनिया में रोग पैदा करवा देना बड़ा आसान है। महात्मा गांधी धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, राजनैतिक व्यक्ति हैं, उन्होंने हरिजनों का उपयोग राजनैतिक चालबाजी की तरह कर लिया। हरिजन शब्द पुराना है, कोई महात्मा गांधी की अपनी ईजाद नहीं। लेकिन हरिजन हम कहते थे उसको जो हरि का था। नानक, कबीर, दादू, भीखा, ये हरिजन थे। राबिया, मीरा, सहजो, ये हरिजन थे।

हरिजन बड़ी ऊंची बात है। उसका ठीक वही अर्थ है जो ब्राह्मण का। क्योंकि ब्राह्मण का अर्थ मर गया था धीरे धीरे और शब्द थोथा हो गया था जन्म के साथ जुड़ गया था, इसलिए संतों ने हरिजन खोजा। गांधी ने उस शब्द की भी हत्या कर दी, उसको भी मार डाला।

ऐसे ही विनोबा ने सर्वोदय शब्द की हत्या कर दी। वह भी पुराना शब्द है, कोई सोलह सौ साल पुराना शब्द है। सबसे पहले जैन शास्त्रों में उसका उल्लेख हुआ है। अमृतचन्द्राचार्य ने सबसे पहले उसका उल्लेख किया है सर्वोदय, और बड़ा प्यारा उल्लेख किया है। खराब कर दिया विनोबा ने।

राजनीतिज्ञों के हाथ में असली सिक्के भी चले जाएं तो खोटे हौ जाते हैं। दुष्ट संगति का बुरा प्रभाव पड़ता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सर्वोदय की व्याख्या की है समाधि को उपलब्ध वे लोग, जिनके प्राणों में सबके उदय की आकांक्षा है। सबके उसमें पत्थर, पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य, सब सम्मिलित हैं। जिनके भीतर समस्त अस्तित्व को समाधि की तरफ ले जाने की महत्वाकांक्षा जगी है, वे सर्वोदयी है।

और आजकल का सर्वोदयी? जिसको विनोबाजी सर्वोदयी कहते हैं, वह क्या है? वह केवल राजनीति के सोपान चढ़ रहा है। सर्वोदय से शुरू करता है क्योंकि सर्वोदय से ही शुरू करना आसान है। किसी की गर्दन दबानी हो तो पैर दबाने से शुरू करना, ख्याल रखना, गणित ऐसा है, एकदम गर्दन दबाओगे तो किसी की दबा न पाओगे। पहले पैर दबाना। पैर दबवाने को तो कोई भी राजी हो जाएगा। फिर धीरे धीरे ऊपर बढ़ते जाना, फिर गर्दन दबा देना।

सर्वोदय एक राजनैतिक चालबाजी है। और इसलिए जयप्रकाश नारायण प्रगट होकर रहे। जीवन दान दिया था सर्वोदय के लिए, मगर जीवन का अत हो रहा है इस देश के सबसे गर्हित राजनीतिज्ञों के बीच में।

सुंदर शब्द भी गलत लोगों के हाथ में पड़कर असुंदर हो जाते हैं। ब्राह्मण शब्द बड़ा प्यारा है, अलौकिक है ब्रह्म को जो जाने। बुद्ध ने भी यही परिभाषा की है ब्रह्म को जो जाने, ब्रह्म मे जो रत हो।

परमात्मा विराट है

संकीर्ण चित्त से उसे पाया नहीं जा सकता..

परमात्मा की खोज में हजारों हजार उपाय किए गए हैं। लेकिन जब भी किसी ने उसे पाया है, तो साथ में यह भी पाया कि उपाय से वह नहीं मिलता है, मिलता तो प्रसाद से है। उसकी अनुकंपा से मिलता है।

लेकिन बात बहुत जटिल हो जाती है, क्योंकि उसकी अनुकंपा बिना प्रयास के नहीं मिलती। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। कि जिन्हें भी उस मार्ग पर जाना है, इस विवाद, उलझन की स्थिति को बिना समझे वे न जा सकेंगे।
कुछ उदाहरण लें। कोई शब्द भूल गया, किसी का नाम भूल गया है। लाख उपाय करते हैं याद करने का। लगता है जीभ पर रखा है। अब आया, अब आया, फिर भी आता नहीं। सब तरफ से सिर मारते हैं। हजार तरकीबों से खोजने की कोशिश करते हैं। और भीतर बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है, क्योंकि यह भी लगता है कि बिलकुल जीभ पर रखा है। इतने पास है, और फिर भी इतने दूर मालूम होता है। आखिर थक जाते हैं। क्योंकि आदमी क्या करेगा? उपाय कर लेगा, बेचैन हो लेगा, फिर थक जाएगा। थक कर दूसरे काम में लग जाते हैं। अखबार पढ़ते हैं, बाहर मकान के घूमने निकल जाते हैं, मित्र से गपशप करते हैं, चाय पीते हैं। और अचानक, अनायास, जब कि कोई भी प्रयास नहीं कर रहे थे, वह नाम उठ कर याद में आ जाता है।

जब हम बहुत चेष्टा करते हैं, तब हमारी चेष्टा भी बाधा बन जाती है। क्योंकि बहुत चेष्टा का अर्थ है कि मन में बड़ा तनाव हो जाता है। जब हम अति आग्रह से खोज करते हैं, तब हमारा आग्रह भी अड़चन हो जाता है, क्योंकि उतने आग्रह से हम खुले नहीं रह जाते, बंद हो जाते हैं। और मन जब बहुत एकाग्र होता है, तब एकाग्रता के कारण संकीर्णता पैदा हो जाती है। चित्त का आकाश छोटा हो जाता है। और संकीर्णता इतनी छोटी हो सकती है कि एक छोटा सा शब्द भी उसमें से पार न हो सके।

एकाग्रता का अर्थ ही संकीर्णता है। जब तुम चित्त को एकाग्र करते हो तो उसका अर्थ है, सब जगह से बंद और केवल एक तरफ खुला हुआ। एक छेद भर खुला है, जिससे तुम देखते हो। बाकी सब बंद कर लिया। तभी तो एकाग्रता होगी।

जैसे किसी आदमी के घर में आग लगी है, तो उसका मन घर की आग पर एकाग्र हो जाता है। उस समय पैर में जूता काट रहा है, इसका पता न चलेगा। उस समय किसी ने उसकी जेब में हाथ डाल कर रुपए निकाल लिए, इसका पता न चलेगा। उस समय कुछ भी पता न चलेगा। उस समय वह आग बुझाने में लगा है। हाथ जल जाएगा, तो भी पीछे पता चलेगा। चित्त एकाग्र है। सारी शक्ति आग पर लगी है। सब भूल गया।

एकाग्रता का अर्थ संकीर्णता है। जब तुम प्रयास करते हो किसी एक चीज को पाने का, एक नाम ही याद नहीं आ रहा है, तब तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता है। एकाग्र होते ही संकीर्ण हो जाता है।

और जटिलता यही है। परमात्मा विराट है। संकीर्ण चित्त से उसे पाया नहीं जा सकता। एक छोटा शब्द याद नहीं आता, तो उस परमात्मा का नाम तो कैसे याद आएगा? और जीभ पर ही नहीं रखा है, हृदय पर रखा है; याद नहीं आता। फिर अनायास जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते, चित्त शिथिल हो जाता है। द्वार-दरवाजे खुल जाते हैं। एकाग्रता की संकीर्णता विलीन हो जाती है। फिर तुम खुल गए। उस क्षण में परमात्मा प्रवेश कर जाता है।

त्राटक विधि और उसके खतरे


अपने कमरे के दरवाजे बंद कर दें, और एक बहुत बड़ा दर्पण अपने सामने रख लें। कमरा अंधेरा होना चाहिए। और फिर दर्पण के पास एक हल्की रोशनी का लैंप रख लें इस तरह कि इसकी छाया शीशे में दिखलाई न पड़े। केवल आपका चेहरा ही दर्पण में प्रतिबिंबित हो। फिर लगातार दर्पण में अपनी स्वयं की आंखों में देखें। पलक न झपके। यह चालीस मिनट का प्रयोग है और दो या तीन दिन में आप अपनी आंखों की पलक न झपकने देने में समर्थ हो जाएंगे।

यदि आंसू भी आए तो आने दें, परन्तु पलक न झपके इसके लिए पूर्ण प्रयास करें। लगातार अपनी आंखों में देखते जाएं। दृष्टि का कोण न बदलें। देखते जाएं लगातार अपनी ही आंखों में और दो या तीन दिन में ही आप सारे कंपनों से अवगत हो जाएंगे। आपका चेहरा नए रूप लेने लगेगा। हो सकता है कि आप डर जाएं।
शीशे में आपका चेहरा बदल जाएगा। कभी बिलकुल भिन्‍न ही चेहरा प्रकट होगा, जिसे कि आपने कभी नहीं देखा। वास्तव में, ये सारे चेहरे आपके हैं। अब अर्धचेतन मन विस्फोट करना शुरू कर रहा है। ये चेहरे, ये मुखौटे आपके हैं। कभी-कभी पिछले जन्मों के चेहरे भी आ सकते हैं।

`रोजाना चालीस मिनट एक सप्ताह तक देखने के बाद, आपका चेहरा एक प्रवाह, एक धीमी रोशनी का प्रवाह जैसा हो जाएगा। बहुत से चेहरे निरंतर आते-जाते रहेंगे। तीन सप्ताह के बाद आपको याद भी नहीं रहेगा कि आपका चेहरों कौन सा है। आपका अपना ही चेहरा आपको याद नहीं रहेगा, क्योंकि आपने इतने चेहरे आते और जाते देखे हैं कि सब गुम हो गया।

यदि आप इसे चालू रखते हैं, तो तीन सप्ताह बाद किसी दिन भी एक सब से अधिक विचित्र बात होगीः अचानक दर्पण में कोई भी चेहरा नहीं होगा। दर्पण खाली होगा। आप रिक्तता में झांक रहे होंगे। कोई चेहरा भी चेहरा नहीं होगा। इसी क्षण अपनी आंखें बंद कर लें और अचेतन को देखें। जब दर्पण में कोई चेहरों न हो, तभी अपनी आंखें बंद कर लें, भीतर देखें, और आप अचेतन के समक्ष खड़े होंगे।

आप नंगे होंगे, बिलकुल नंगे, जैसे कि आप हैं, सारी प्रवंचनाएं गिर जाएंगी। यह वास्तविकता है। समाज ने कितनी ही तहें निर्मित की हैं, ताकि आप उनके प्रति सजग न हों। इसके लिए एक बार जब आप स्वयं को अपनी नग्नता में, अपनी पूर्ण नग्नता में जान लेते हैं, आप दूसरे ही व्यक्ति होने शुरू हो जाते हैं। तब आप अपने को धोखा नहीं दे सकते। अब आप जानते हैं कि आप क्या है, और जब तक आप न जानें कि आप क्या है, आप रूपांतरित नहीं हो सकते क्योंकि कोई भी रूपांतरण केवल इसी नग्न वास्तविकता में संभव है। यह नग्न वास्तविकता प्रसुप्त बीज है किसी भी रूपांतरण के लिए। कोई प्रवंचना रूपांतरित नहीं हो सकती। जब आपको मूल चेहरों यहां है और आप इसे रूपांतरित कर सकते हैं और वस्तुतः उसे रूपांतरित करने का संकल्प ही रूपांतरण को प्रभावित करता है।
 
परन्तु आपके झूठे चेहरे–आप उन्हें नहीं बदल सकते। मतलब कि आप उन्हें बदल तो सकते हैं, परन्तु रूपांतरित नहीं कर सकते। बदलने से मेरा मतलब है कि आप उनके स्थान पर दूसरे झूठे चेहरे लगा सकते हैं। एक चोर एक साधु हो सकता है। यदि एक अपराधी साधु हो सकता है, तो बहुत ही सरल है मुखौटा का बदलना, किंतु यह रूपांतरण नहीं है। रूपांतरण का मतलब है वही हो जाना जो कि तुम हो असल में, जो कि तुम वस्तुतः हो। अतः जिस क्षण आप अचेतन को अपने समक्ष पाएं, उसका सामना करें, देखें, आप वास्तविकता के आमने-सामने खड़े हैं, आप आपने प्रामाणिक स्वरूप के समक्ष खड़े हैं।

आपका झूठा स्वरूप वहां नहीं है, आपका नाम भी नहीं है, आपकी आकृति भी नहीं है, आपका चेहरा भी नहीं है। प्रकृति की नग्न शक्तियां रह गई हैं और इस नग्न शक्तियों के साथ कोई भी रूपांतरण संभव है, आपके जरा से संकल्प करने मात्र पर, चाहने भर पर। कुछ और नहीं करना है। आप मात्र चाह करें, और चीजें होने लगेंगी। जब आप स्वयं को इस नग्नता में देख लें, तब मात्र इच्छा करें, और जो कुछ भी आप चाहेंगे, वह हो जाएगा।
बाइबिल में, परमात्मा ने कहा–प्रकाश हो और–प्रकाश हो गया। कुरान में, खुदा ने कहा, संसार हो और संसार हो गया। सचमुच, ये कथाएं हैं, संकल्प की कथाएं, जो कि आप में छिपा हुआ है।


 जब आप अपनी नग्न सत्यवत्ता को देखते हैं, मूल, आधारभूत शक्तियों को देखते हैं तो आप एक सृष्टा बन जाते हैं, एक देवता हो जाते हैं। बस कहें, एक शब्द बोलें, और वह हो जाता है। कहें कि प्रकाश हो, और प्रकाश हो जाएगा। अपने प्रामाणिक स्वरूप से साक्षात्कार होने के पहले यदि आप अंधेरे का प्रकाश में रूपांतरित करने की कोशिश कर रहे हैं, तो वह संभव नहीं है।

अतः यह सामना मूल है, आधारभूत है किसी भी धार्मिक घटना के लिए। कितनी ही विधियां आविष्कृत की गई हैं। एकदम हो जाएं ऐसी विधियां भी है, और धीरे-धीरे हों ऐसी विधियां भी हैं। मैंने आपको धीरे-धीरे होने वाली विधि के बारे में बतलाया है। अचानक होने वाली विधियां भी हैं, लेकिन अचानक होने वाली विधि में यह सदैव बड़ा कठिन होता है, क्योंकि अचानक विधि में हो सकता है कि आपकी मृत्यु हो जाएं। अचानक विधि में हो सकता है कि आप पागल हो जाएं, क्योंकि घटना इतनी अचानक होती है कि आप उसके लिए सोच भी नहीं सकते। आप बस गिर पड़ते हैं, भयग्रस्त। गीता में यह होता है। अर्जुन कृष्ण को जोर देकर अपना विराट स्वरूप दिखलाने को कह रहा है। कृष्ण दूसरी चीजों की बात करते चले जाते हैं, लेकिन अर्जुन बार-बार जोर दे रहा है और वह कहता है मुझे दिखलाना पड़ेगा। बिना देखे मैं मान नहीं सकता। यदि आप सचमुच परमात्मा हैं, तो अपना ब्रह्म स्वरूप मुझे दिखलाएं।

कृष्ण उसे दिखलाते हैं, परन्तु वह इतना अचानक होता है कि अर्जुन उसके लिए कतई तैयार नहीं रहता, वह चिल्लाने लगता है और कृष्ण से कहता है–बंद करें! बंद करें इसे! मैं भय से मर रहा हूं। इसलिए याद आप किसी अचानक विधि से इस पर आए, तो यह खतरनाक होगा। कुछ खास विधियां हैं। वे केवल समूह में ही सिद्ध की जा सकती हैं–एक ग्रुप में, जिसमें आप दूसरों को दूसरे आपको सहायता दे सकें।

वास्तव में, आश्रम का निर्माण भी इन्हीं अचानक विधियों के लिए किया गया था, क्योंकि वे अकेले साधी नहीं जा सकतीं। एक समूह ही आवश्‍यकता होती है, दूसरों की जरूरत होती है, एक निरंतर चौकसी की आवश्‍यकता होती है, क्योंकि कभी-कभी आप महीनों के लिए बेहोश होकर गिर पड़ते हैं और तब यदि कोई नहीं हो जो कि जानता हो कि अब क्या करें, तो आपको मृत समझ लिया जाएगा। रामकृष्ण कितनी ही बार गहरी समाधि में चले जाते थे, छह-छह दिन के लिए, दो सप्ताह के लिए, लगातार। उन्हें सचमुच से जबरन खिलाया जाता था: क्योंकि वे बिलकुल ऐसे हो जाते थे, जैसे मूर्च्‍छित हों। एक साधक-समूह की आवश्‍यकता होती है।

अचानक विधियों के लिए, और उसके लिए एक गुरु परम आवश्‍यक है। ये अचानक विधियां, सड़न मैथड़स भारतीय विधियों में से निकाल दी गई–बुद्ध, महावीर व शंकराचार्य के कारण। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साधुओं को सदैव यात्रा करते रहना चाहिए। उन्होंने साधुओं को आश्रमों में नहीं रहने दिया। उन्हें तीन दिन से ज्यादा कहीं भी नहीं रहना चाहिए। इसकी जरूरत भी थी, क्योंकि बुद्ध व महावीर के समय में, आश्रम शोषण के केंद्र बन गए थे, वे बड़े भारी व्यापार के केंद्र हो गए थे। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों ने इस बात पर जोर दिया कि संन्यासी तीन दिन से अधिक कहीं भी न रहे। और तीन दिन, एक बड़ी मनोवैज्ञानिक सीमा है, क्योंकि किसी भी स्थान या लोगों से परिचित होने के लिए आपको तीन दिन से अधिक की आवश्‍यकता होती है।

आत्मा

यह सच है कि आत्मा अमर है, ज्ञानस्वरूप है, फिर कैसे अज्ञान में गिरती है?

 ह सवाल महत्वपूर्ण है और बहुत ऊपर से देखे जाने पर समझ में नहीं आ सकेगा। थोड़े भीतर गहरे झांकने से यह बात स्पष्ट हो सकेगी कि ऐसा क्यों होता है। जैसे, इस कमरे में आप हैं और आप इस कमरे के बाहर कभी भी नहीं गए हैं, कभी गए ही नहीं। इस कमरे में आप हैं, बड़े आनंद में हैं, बड़ी शांति में हैं, बड़े सुरक्षित। न कोई भय, न कोई अंधकार, न कोई दुख; लेकिन इस कमरे के बाहर आप कभी नहीं गए हैं।

तो इस कमरे में रहने की दो शर्तें हो सकती हैं: एक तो यह कि आपको कमरे के बाहर जाने की कोई स्वतंत्रता नहीं है। यानी आप जाना भी चाहें तो आप नहीं जा सकते हैं। आप परतंत्र हैं इस कमरे में रहने को–एक तो शर्त यह हो सकती है। दूसरी शर्त यह हो सकती है कि आप स्वतंत्र पूरे हैं बाहर जाने को, लेकिन आप अपनी समझ के कारण बाहर नहीं जाते हैं। क्योंकि बाहर दुख है, क्योंकि बाहर पीड़ा है, बाहर भटक जाना है, बाहर अशांति है। ये दो शर्तें हो सकती हैं।

अगर आप परतंत्र हैं बाहर जाने के लिए, तो आपका सुख, आपकी शांति, आपकी सुरक्षा, सभी थोड़े दिनों में आपको कष्टदायी हो जाएंगी, क्योंकि परतंत्रता से बड़ा कष्ट और कोई भी नहीं है। अगर आपको सुख में रहने के लिए भी बाध्य किया जाए तो सुख भी दुख हो जाएगा।

बाध्यता इतना बड़ा दुख है कि बड़े से बड़े सुख को यानी एक आदमी को हम कहें कि हम तुम्हें सारे सुख देते हैं सिर्फ स्वतंत्रता नहीं, यानी यह भी स्वतंत्रता नहीं देते कि अगर तुम चाहो तो इन सुखों को भोगने से इनकार कर सको, तुम्हें भोगना ही पड़ेगा तो परतंत्रता इतना बड़ा दुख है कि सारे सुखों को मिट्टी कर देगी। और अगर यह शर्त हो इस कमरे के भीतर रहने की कि बाहर नहीं जा सकते, सुख नहीं छोड़ सकते, तो ये सब सुख अत्यंत दुख हो जाएंगे। और बाहर निकलने की प्यास इतनी तीव्र हो जाएगी, विद्रोह इतना गहरा हो जाएगा, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और यह शर्त कि बाहर नहीं जा सकोगे, अनिवार्य रूप से बाहर ले जाने का कारण बनेगी। और यह भी हो सकता है फिर कि बाहर दुख हो, लेकिन फिर भी आप भीतर आना पसंद न करें, क्योंकि भीतर से बाहर जाने की कोई आज्ञा नहीं है। एक स्थिति यह है।

दूसरी स्थिति यह है कि आपको पूरी स्वतंत्रता है, आप बाहर जाएं या भीतर रहें। लेकिन आप कभी बाहर नहीं गए हैं। आपने भीतर के सब सुख, सब शांति, सब ज्ञान जाना है। लेकिन बाहर अज्ञात है, और आप बाहर जाते हैं। और जाएंगे तो ही तो जान सकेंगे कि बाहर क्या है! जानेंगे, जानने के लिए यात्रा करेंगे, भटकेंगे, दुख भोगेंगे, तब फिर वापस लौटेंगे। और अब जब आप वापस आएंगे तो पहले का ही सुख आपको करोड़ गुना ज्यादा मालूम पड़ेगा, क्योंकि बीच में दुख का एक अनुभव, अज्ञान का एक अनुभव पीड़ा से आप गुजरे हैं।

हो सकता है कि पहले वह कमरे के भीतर के सुख आपको सुख भी न मालूम पड़े हों, क्योंकि आपको कोई दुख न था; और प्रकाश आपको प्रकाश न मालूम पड़ा हो, क्योंकि आपने अंधेरा न देखा था। अब जब आप बाहर के जगत से वापस लौटते हैं, तब आप जानते हैं कि प्रकाश क्या है। क्योंकि आपने अंधेरा जाना, क्योंकि आपने पीड़ा जानी, इसलिए आप अब आनंद को पहचानते हैं। तो पहले का सुख रहा भी होगा तो भी बोधपूर्वक न रहा होगा, कांशस नहीं हो सकते हैं उसके आप। आप मूर्च्छित ही रहे होंगे, उस सुख में भी मूर्च्छित रहे होंगे। लेकिन जब बाहर के सारे दुखों को झेल कर, बड़ी कठिनाइयों से वापस कदम उठा-उठा कर अपने घर पर आप पहुंचते हैं, तब आप सचेतन पहुंचते हैं।

यानी मेरा कहना यह है कि आत्मा उसी अवस्था में पुनः पहुंचती है, जिस अवस्था में वह थी। यह संसार की पूरी यात्रा उसे किसी नई जगह नहीं पहुंचा देती है–वहीं, जहां वह सदा थी। लेकिन इस यात्रा के बाद पहुंचना अनुभव को सचेतन, गहरा, अदभुत बना देता है। यानी वही स्थिति अब मोक्ष मालूम होती है–वही स्थिति! वह स्थिति तब भी थी, लेकिन तब वह मोक्ष न थी, हो सकता है, तब वह बंधन जैसी ही मालूम पड़ी हो। क्योंकि आपको विपरीत कोई अनुभव न था।

आत्मा स्वतंत्र है स्वयं के बाहर जाने के लिए, इसके लिए कोई परतंत्रता नहीं है। आत्मा स्वतंत्र है भटकने के लिए। और स्वतंत्रता का हमेशा यही अर्थ होता है, जहां भूल करने की स्वतंत्रता न हो, वहां स्वतंत्रता नहीं है। भूल करने की स्वतंत्रता गहरी से गहरी स्वतंत्रता है।

आत्मा स्वतंत्र है, पहली बात। यानी आत्मा अमर है, आत्मा ज्ञानपूर्ण है; उतना ही गहरा यह सत्य भी है कि आत्मा स्वतंत्र है, उस पर कोई परतंत्रता नहीं है। स्वतंत्रता का मतलब होता है कि वह चाहे तो सुख उठाए, चाहे तो दुख उठाए; चाहे तो ज्ञान में जीए और चाहे तो अंधकार में खो जाए; चाहे तो वासना में जीए और चाहे वासना से मुक्त हो जाए। स्वतंत्रता का मतलब यह है कि ये दोनों मार्ग उसके लिए बराबर खुले हुए हैं। और इसलिए बहुत अनिवार्य है कि स्वतंत्रता की यह संभावना उसे उन स्थितियों में ले जाएगी, जो दुखदायी हों। और तभी उस अनुभव से वह वापस लौट सकती है।

तो मैंने जैसा कहा निगोद, निगोद वह स्थिति है, जहां आत्माएं वही हैं, जो वे हैं। निगोद वह स्थिति है, जहां उन्होंने कोई विपरीत अनुभव नहीं किया। निगोद वह स्थिति है, जहां उन्होंने स्वतंत्रता का उपयोग नहीं किया। इसलिए निगोद एक परतंत्रता की स्थिति है।

संसार वह स्थिति है, जहां आत्मा ने स्वतंत्रता का उपयोग करना शुरू किया। वह भटकी, उसने भूलें कीं, उसने दुख पाए, उसने शरीर ग्रहण किए, उसने न मालूम कितने प्रकार के शरीर ग्रहण किए, उसने हजारों तरह की वासनाएं पालीं और पोसीं और प्रत्येक वासना के अनुकूल शरीरों को ग्रहण किया। यह भी उसकी स्वतंत्रता है। यानी अगर मैंने शरीर ग्रहण किया है तो यह मेरा डिसीजन है, यह मेरा निर्णय है। इसमें दुनिया में कोई मुझे धक्के नहीं दे रहा है कि तुम शरीर ग्रहण करो। यह मेरी परम स्वतंत्रता की संभावना का ही एक हिस्सा है कि मैं शरीर ग्रहण करूं।

फिर मैं कौन सा शरीर ग्रहण करूं, यह भी मेरी स्वतंत्रता है–कि मैं चींटी बनूं, कि हाथी बनूं, कि आदमी बनूं, कि देवता बनूं, कि प्रेत बनूं, क्या बनूं, यह भी सवाल मेरे ऊपर ही निर्भर है। इसके लिए भी कोई मुझे धक्के नहीं दे रहा है। लेकिन चूंकि मेरी आत्मा स्वतंत्र है, इसलिए मैं इन सारी चीजों का उपयोग कर सकता हूं। और उपयोग के बाद ही मैं इनसे मुक्त हो सकता हूं, इनके पहले मुक्त भी नहीं हो सकता।

इसलिए निगोद में जो आत्मा है, वह अमुक्त है। अमुक्त का कुल मतलब इतना है कि उसने स्वतंत्रता का उपभोग ही नहीं किया।

मन शूद्र है अथवा ब्राह्मण ?

देह शूद्र है। मन वैश्य है। आत्मा क्षत्रिय है। परमात्मा ब्राह्मण। इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है। ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है।


देह शूद्र है। क्यों? क्योंकि देह में कुछ और है भी नहीं। देह की दौड़ कितनी है? खा लो, पी लो, भोग कर लो, सो जाओ। जीओ और मर जाओ। देह की दौड़ कितनी है! शूद्र की सीमा है यही। जो देह में जीता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ हुआ. देह के साथ तादात्म्य। मैं देह हूं? ऐसी भावदशा. शूद्र।

मन वैश्य है। मन खाने पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और चाहिए। मन यानी और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता होती है। देह में बड़ी सरलता है। देह कुछ ज्यादा मतों नहीं करती। दो रोटी मिल जाएं। सोने के लिए छप्पर मिल जाए। बिस्तर मिल जाए। जल मिल जाए। कोई प्रेम करने को मिल जाए। प्रेम देने लेने को मिल जाए। बस, शरीर की मांगें सीधी साफ हैं, थोड़ी हैं, सीमित हैं। देह की मांगें सीमित हैं। देह कुछ ऐसी बातें नहीं मांगती, जो असंभव है। देह को असंभव में कुछ रस नहीं है। देह बिलकुल प्राकृतिक है।

इसलिए मैं कहता हूं कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि सभी देह की तरह पैदा होते हैं। जब और और की वासना उठती है, तो वैश्य। वैश्य का मतलब है और धन चाहिए।

फोर्ड अपने बुढ़ापे तक हेनरी फोर्ड और नए धंधे खोलता चला गया। किसी ने उसकी अत्यंत वृद्धावस्था में, मरने के कुछ दिन पहले ही पूछा उससे कि आप अभी भी धंधे खोलते चले जा रहे हैं! आप के पास इतना है; इतने और नए धंधे खोलने का क्या कारण है?

वह नए उद्योग खोलने की योजनाएं बना रहा था। बिस्तर पर पड़ा हुआ भी! मरता हुआ भी! हेनरी फोर्ड ने क्या कहा, मालूम? हेनरी फोर्ड ने कहा. मैं नहीं जानता कि कैसे रुकूं। मैं रुकना नहीं जानता। मैं जब तक मर ही न जाऊं, मैं रुक नहीं सकता। 

यह वैश्य की दशा है। वह कहता है, और। इतना है, तो और। ऐसा मकान है, तो और थोड़ा बड़ा। इतना धन है, तो और थोड़ा ज्यादा धन। 

देह शूद्र है, और सरल है। शूद्र सदा ही सरल होते हैं। मन बहुत चालबाज, चालाक, होशियार, हिसाब बिठाने वाला है। मन की सब दौडे हैं। मन किसी चीज से राजी नहीं है। मन व्यवसायी है। वह फैलाए चला जाता है। वह जानता ही नहीं, कहा रुकना। वह अपनी दुकान बड़ी किए चला जाता है! बड़ी करते करते ही मर जाता है।

आत्मा क्षत्रिय है। क्यों? क्योंकि क्षत्रिय को न तो इस बात की बहुत चिंता है कि शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं; जरूरत पड़े तो वह शरीर की सब जरूरतें छोड़ने को राजी है। और क्षत्रिय को इस बात की भी चिंता नहीं है कि और और। अगर क्षत्रिय को इस बात की चिंता हो, तो जानना कि वह वैश्य है, क्षत्रिय नहीं है।
क्षत्रिय का मतलब ही यह होता है संकल्प का आविर्भाव। प्रबल संकल्प का आविर्भाव। महा संकल्प का आविर्भाव। और महा संकल्प या प्रबल संकल्प के लिए एक ही चुनौती है, वह है कि मैं कौन हूं इसे जान लूं।

शूद्र शरीर को जानना चाहता है। उतने में ही जी लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। मन को पहचानना चाहता है। क्षत्रिय, मैं कौन हूं इसे जानना चाहता है। जिस दिन तुम्हारे भीतर यह सवाल उठ आए कि मैं कौन हूं, तुम क्षत्रिय होने लगे। अब तुम्हारी धन इत्यादि दौड़ो में कोई उत्सुकता नहीं रही। एक नयी यात्रा शुरू हुई अंतर्यात्रा शुरू हुई।

तुम यह जानते हो कि इस देश में जो बड़े से बड़े ज्ञानी हुए सब क्षत्रिय थे। बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण सब क्षत्रिय थे! क्यों? होना चाहिए सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय। क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है!

और जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया, क्योंकि जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है, उसे संकल्प की यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला, चुनौती नहीं मिली।

इस देश के महाज्ञानी क्षत्रिय थे। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध सब क्षत्रिय थे। इसके पीछे कुछ कारण है। सिर्फ एक परशुराम को छोड़कर, कोई ब्राह्मण अवतार नहीं है। और परशुराम बिलकुल ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे ज्यादा क्षत्रिय आदमी कहां खोजोगे! उन्होंने क्षत्रियों से खाली कर दिया पृथ्वी को कई दफे काट काटकर। वे काम ही जिंदगीभर काटने का करते रहे। उनका नाम ही परशुराम पड़ गया, क्योंकि वे फरसा लिए घूमते रहे। हत्या करने के लिए परशु लेकर घूमते रहे। परशु वाले राम ऐसा उनका नाम है।

वे क्षत्रिय ही थे। उनको भी ब्राह्मण कहना बिलकुल ठीक नहीं है, जरा भी ठीक नहीं है। उनसे बडा क्षत्रिय खोजना मुश्किल है! जिसने सारे क्षत्रियों को पृथ्वी से कई दफे मार डाला और हटा दिया, अब उससे बड़ा क्षत्रिय और कौन होगा?

संकल्प यानी क्षत्रिय।

ऐसा समझो कि भोग यानी शूद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प पूरा हो जाए, तभी समर्पण की संभावना है। तब समर्पण यानी ब्राह्मण। जब तुम अपना सब कर लो, तभी तुम झुकोगे। उसी झुकने में असलियत होगी। जब तक तुम्हें लगता है मेरे किए हो जाएगा, तब तक तुम झुक नहीं सकते। तुम्हारा झुकना धोखे का होगा, झूठा होगा, मिथ्या होगा।

अपना सारा दौड़ना दौड़ लिए, अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं, अंतिम चीज हाथ नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती, चूकती चली जाती है। तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है। जब तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो, तब असली प्रार्थना नहीं है। जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी पर। अपने टिका रहे हो ऐसा नहीं, झुक रहे हो ऐसा नहीं, झुके जा रहे हो। अब कोई और उपाय नहीं रहा। जिस दिन झुकना सहज फलित होता है, उस दिन समर्पण।

समर्पण यानी ब्राह्मण। समर्पण यानी ब्रह्म। जो मिटा, उसने ब्रह्म को जाना।

ये चारों पर्तें तुम्हारे भीतर हैं। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो। ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं। तुम कहां अपने रेडियो की कुंजी को लगा देते हो, किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो, यह तुम पर निर्भर है।

ये चारों तुम्हारे भीतर हैं। देह तुम्हारे भीतर है। मन तुम्हारे भीतर है। आत्मा तुम्हारे भीतर। परमात्मा तुम्हारे भीतर।

अगर तुमने अपने ध्यान को देह पर लगा दिया, तो तुम शूद्र हो गए।

स्वभावत:, बच्चे सभी शूद्र होते हैं। क्योंकि बच्चों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे देह से ज्यादा गहरे में जा सकेंगे। मगर के अगर शूद्र हों, तो अपमानजनक है। बच्चों के लिए स्वाभाविक है। अभी जिंदगी जानी नहीं, तो जो पहली पर्त है, उसी को पहचानते हैं। लेकिन का अगर शूद्र की तरह मर जाए, तो निंदायोग्य है। सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं, लेकिन किसी को शूद्र की तरह मरने की आवश्यकता नहीं है।

अगर तुमने अपने रेडियो को वैश्य के स्टेशन पर लगा दिया; तुमने अपने ध्यान को वासना तृष्णा में लगा दिया, लोभ में लगा दिया, तो तुम वैश्य हो जाओगे। तुमने अगर अपने ध्यान को संकल्प पर लगा दिया, तो क्षत्रिय हो जाओगे। तुमने अपने ध्यान को अगर समर्पण में डुबा दिया, तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे।

ध्यान कुंजी है। कुछ भी बनो, ध्यान कुंजी है। शूद्र के पास भी एक तरह का ध्यान है। उसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया। अब जो स्त्री दर्पण के सामने घंटों खड़ी रहती है बाल संवारती है; साड़ी संवारती है, पावडर लगाती है यह शूद्र है। ये जो दो तीन घंटे दर्पण के सामने गए, ये शूद्रता में गए। इसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया है। यह राह पर चलती भी है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान है। यह दूसरों को भी देखती है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान होगा। जब यह अपने शरीर को ही देखती है, तो दूसरे के शरीर को ही देखेगी। और कुछ नहीं देख पाएगी। यह अगर अपनी साड़ी को घंटों पहनने में रस लेती है, तो बाहर निकलेगी, तो इसको हर स्त्री की साड़ी दिखायी पड़ेगी और कुछ दिखायी नहीं पड़ेगा।

जो व्यक्ति बैठा बैठा सोचता है कि एक बड़ा मकान होता, एक बड़ी कार होती; बैंक में इतना धन होता क्या करूं? कैसे करूं? वह अपने ध्यान को वैश्य पर लगा रहा है। धीरे धीरे ध्यान वहीं ठहर जाएगा। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर तुम एक ही रेडियो में एक ही स्टेशन सदा सुनते हो, तो धीरे धीरे तुम्हारे रेडियो का कांटा उसी स्टेशन पर ठहर जाएगा, जड़ हो जाएगा। अगर तुम दूसरे स्टेशन को कभी सुने ही नहीं हो और आज अचानक सुनना भी चाहो, तो शायद पकड़ न सकोगे। क्योंकि हम जिस चीज का उपयोग करते हैं, वह जीवित रहती है। और जिसका उपयोग नहीं करते, वह मर जाती है।

इसलिए कभी कभी जब सुविधा बने शूद्र से छूटने की, तो छूट जाना। वैश्य से छूटने की, तो छूट जाना। जब सुविधा मिले, तो कम से कम ब्राह्मण दूर कम से कम थोड़ी देर को क्षत्रिय होना, संकल्प को जगाना। और कभी कभी मौके जब आ जाएं, चित्त प्रसन्न हो, प्रमुदित हो, प्रफुल्लित हो, तो कभी कभी क्षणभर को ब्राह्मण हो जाना। सब समर्पित कर देना। लेट जाना पृथ्वी पर चारों हाथ पैर फैलाकर, जैसे मिट्टी में मिल गए, एक हो गए। झुक जाना सूरज के सामने या वृक्षों के सामने। झुकना मूल्यवान है, कहां झुकते हो, इससे कुछ मतलब नहीं है। उसी झुकने में थोड़ी देर के लिए ब्रह्म का आविर्भाव होगा।

ऐसे धीरे धीरे, धीरे  धीरे अनुभूति बढ़ती चली जाए, तो हर व्यक्ति अंततः मरते  मरते ब्राह्मण हो जाता है।

जन्म तो शूद्र की तरह हुआ है, ध्यान रखना, मरते समय ब्राह्मण कम से कम हो जाना। मगर एकदम मत सोचना कि हो सकोगे।

कई लोग ऐसा सोचते हैं कि बस, आखिरी घड़ी में हो जाएंगे। जिसने जिंदगीभर अभ्यास नहीं किया, वह मरते वक्त आखिरी घड़ी में रेडियो टटोलेगा, स्टेशन नहीं लगेगा फिर! पता ही नहीं होगा कि कहा है! और मौत इतनी अचानक आती है कि सुविधा नहीं देती। पहले से खबर नहीं भेजती कि कल आने वाली हूं। अचानक आ जाती है। आयी कि आयी! कि तुम गए! एक क्षण नहीं लगता। उस घड़ी में तुम सोचो कि राम को याद कर लेंगे, तो तुम गलती में हो। तुमने अगर जिंदगीभर कुछ और याद किया है, तो उसकी ही याद आएगी।

इसलिए तैयारी करते रहो, साधते रहो। जब सुविधा मिल जाए, ब्राह्मण होने का मजा लो। उससे बडा कोई मजा नहीं है। वही आनंद की चरम सीमा है।

 एस धम्मो सनंतनो 

विचार शून्यता

विचार शून्यता

चेतना की पूरी अलग ही गुणवत्ता है जो विचार शून्यता से आती है: न ठीक, न गलत से, बस विचार शून्य की दशा। तुम बस देखते हो, तुम बस होशपूर्ण होते हो, लेकिन तुम सोचते नहीं। और यदि कोई विचार आता है... वे आते हैं, क्योंकि विचार तुम्हारे नहीं हैं, वे बस हवा में तैर रहे हैं। यहां चारों तरफ विचार तैर रहे हैं, विचारों का क्षेत्र तैयार हो गया है। ऐसे ही जैसे कि यहां हवा है, तुम्हारे चारों तरफ पर विचार हैं, और ये स्वतः घुसते चले जाते हैं। यह तभी रुकते हैं जब तुम अधिक से अधिक होश से भरते हो। इसमें कुछ ऐसा है : यदि तुम अधिक होश से भरते हो, विचार विलीन हो जाते हैं, वे पिघल जाते हैं, क्योंकि होश की ऊर्जा विचारों से अधिक बड़ी है। 
 
होश विचारों के लिए आग की तरह है। यह ऐसे ही है जैसे कि तुम घर में दीपक जलाओ और अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता, तुम प्रकाश को बंद कर दो--चारों तरफ से अंधेरा प्रवेश कर जाता है; बगैर एक मिनट लिए, एक क्षण भी लिए, वह वहां होता है। जब घर में प्रकाश जलता है, अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता। विचार अंधेरे की तरह होते हैं : वे तब ही प्रवेश करते हैं जब भीतर प्रकाश न हो। होश आग है: तुम अधिक होश से भरते हो, कम से कम विचार प्रवेश करते हैं। 
 
यदि तुम अपने होश से सच में अखंडित हो जाते हो, विचार तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं करते; तुम अभेद्य किले हो गए, कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसा नहीं है कि तुम बंद हो गए, याद रखना--तुम पूरी तरह से खुले हो; परंतु तुम्हारी ऊर्जा एक किला बन जाती है। और जब कोई विचार तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता, वे आएंगे और तुम्हारे पास से गुजर जाएंगे। तुम उन्हें आते देखोगे, और बस, जब वे तुम्हारे करीब आएंगे वे मुड़ जाएंगे। तब तुम किसी तरफ भी मुड़ सकते हो, तब तुम अगर नर्क में भी चले जाओ--तुम पर कुछ भी असर नहीं कर सकता। बुद्धत्व का यही अर्थ है।

कुम्भ में जाने वाले 😉सोचे

कुम्भ में जाने वाले 😉सोचे और जरूर पढ़े
सोमवती स्नान का पर्व था। क्षिप्रा घाट पर भारी भीड़ लग रही थी।
शिव पार्वती आकाश से गुजरे। पार्वती ने इतनी भीड़ का कारण पूछा - आशुतोष ने कहा - सोमवती पर्व पर क्षिप्रा स्नान करने वाले स्वर्ग जाते है। उसी लाभ के लिए यह स्नानार्थियों की भीड़ जमा है।
पार्वती का कौतूहल तो शान्त हो गया पर नया संदेह उपज पड़ा, इतनी भीड़ के लायक स्वर्ग में स्थान कहाँ है? फिर लाखों वर्षों से लाखों लाख लोग इस आधार पर स्वर्ग पहुँचते तो उनके लिए स्थान भी तो कहीं रहता?
छोटे से स्वर्ग में यह कैसे बनेगा? भगवती ने अपनानया सन्देह प्रकट किया और समाधान चाहा।
भगवान शिव बोले - शरीर को गीला करना एक बात है और मन की मलीनता धोने वाला स्नान जरूरी है। मन को धोने वाले ही स्वर्ग जाते हैं। वैसे लोग जो होंगे उन्हीं को स्वर्ग मिलेगा।
सन्देह घटा नहीं, बढ़ गया।
पार्वती बोलीं - यह कैसे पता चले कि किसने शरीर धोया किसने मन संजोया।
यह कार्य से जाना जाता है। शिवजी ने इस उत्तर से भी समाधान न होते देखकर प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया।
मार्ग में शिव कुरूप कोढ़ी बनकर पढ़ रहे। पार्वती को और भी सुन्दर सजा दिया। दोनों बैठे थे। स्नानार्थियों की भीड़ उन्हें देखने के लिए रुकती। अनमेल स्थिति के बारे में पूछताछ करती।
पार्वती जी रटाया हुआ विवरण सुनाती रहतीं। यह कोढ़ी मेरा पति है। कुंभ स्नान की इच्छा से आए हैं। गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ। बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम लोग यहाँ बैठे हैं।
अधिकाँश दर्शकों की नीयत डिगती दिखती। वे सुन्दरी को प्रलोभन देते और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते।
पार्वती लज्जा से गढ़ गई। भला ऐसे भी लोग कुंभ स्नान को आते हैं क्या? निराशा देखते ही बनती थी।
संध्या हो चली। एक उदारचेता आए। विवरण सुना तो आँखों में आँसू भर लाए। सहायता का प्रस्ताव किया और कोढ़ी को कंधे पर लादकर क्षिप्रा तट तक पहुँचाया। जो सत्तू साथ में था उसमें से उन दोनों को भी खिलाया।
साथ ही सुन्दरी को बार-बार नमन करते हुए कहा - आप जैसी देवियां ही इस धरती की स्तम्भ हैं। धन्य हैं आप जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं।
प्रयोजन पूरा हुआ। शिव पार्वती उठे और कैलाश की ओर चले गए। रास्ते में कहा - पार्वती इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया। कुंभ स्नान का महात्म्य तो सही है पर उसके साथ मन भी धोने की शर्त लगी है।
पार्वती तो समझ गई कि कुम्भ महात्म्य सही होते हुए भी... क्यों लोग उसके पुण्य फल से वंचित रहते हैं?

राम चरित मानस की रचना

तुलसी दास जी ने जब राम चरित मानस की रचना की,तब उनसे किसी ने पूंछा कि ....
बाबा ! आप ने इसका नाम रामायण क्यों नहीं रखा ? क्योकि इसका नाम रामायण ही है, बस आगे पीछे नाम लगा देते है, वाल्मीकि रामायण,आध्यात्मिक रामायण,आपने राम चरित मानस ही क्यों नाम रखा?
बाबा गोस्वामी जी ने कहा :-
क्योकि रामायण और राम चरित मानस में एक बहुत बड़ा अंतर है । "रामायण" का अर्थ है राम का मंदिर, राम का घर, जब हम मंदिर जाते है तो एक समय पर जाना होता है, मंदिर जाने के लिए नहाना पडता है, जब मंदिर जाते है तो खाली हाथ नहीं जाते कुछ फूल, फल साथ लेकर जाना होता है । मंदिर जाने कि शर्त होती है,मंदिर साफ सुथरा होकर जाया जाता है ।
पर मानस अर्थात सरोवर, सरोवर में ऐसी कोई शर्त नहीं होती, समय की पाबंधी नहीं होती । कोई भी हो ,कैसा भी हो सरोवर में स्नान कर सकता है । और व्यक्ति जब मैला होता है, गन्दा होता है तभी सरोवर में स्नान करने जाता है । माँ की गोद में कभी भी कैसे भी बैठा जा सकता है ।
इसलिए जो शुद्ध हो चुके है वे रामायण में चले जाए और जो शुद्ध होना चाहते है वे राम चरित मानस में आ जाए......
राम कथा जीवन के
दोष मिटाती है ....
"रामचरित मानस एहिनामा, सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा"
राम चरित मानस तुलसीदास जी ने जब किताब पर ये शब्द लिखे तो आड़े में रामचरितमानस ऐसा नहीं लिखा, खड़े में लिखा -
राम
चरित
मानस
किसी ने गोस्वामी जी से पूंछा
आपने खड़े में क्यों लिखा ....?
तो गोस्वामी जी कहते है ... "रामचरित मानस राम दर्शन की ,राम मिलन की सीढी है , जिस प्रकार हम घर में कलर कराते है तो एक लकड़ी की सीढी लगाते है , जिसे हमारे यहाँ नसेनी कहते है, जिसमे डंडे लगे होते है । गोस्वामी जी कहते है रामचरित मानस भी राम मिलन की सीढी है, जिसके प्रथम डंडे पर पैर रखते ही श्रीराम चन्द्र जी के दर्शन होने लगते है, अर्थात यदि कोई बाल काण्ड ही पढ़ ले, तो उसे राम जी का दर्शन हो जायेगा ।

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गाँव की एक बाला दूध बेचने के लिये रोजाना दूसरे गाँव जाती।
रास्ते में एक नदी पड़ती। नदी किनारे दूध का डिब्बा खोलती और उसमें से एक लोटा दूध निकालती। दूधके डिब्बे में एक लोटा पानी मिलाती और नदी पार के गाँव की ओर चल पड़ती दूध बेचने।
यह उसकी रोज की दिनचर्या थी।
नदी किनारे एक वृक्ष पर संत मलूकदास जी जप माला फेरते हुऐ इस अहीर बाला की गतिविधियों को रोज आश्चर्य से देखा करते।
एक दिन उनसे रहा नहीं गया और ऊपर से आवाज लगा ही दी। -- बेटी सुनो!
--हाँ! बाबा। बोलिये ना।
--बुरा न मानो तो तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ।
--पूछिये ना बाबा। आपकी बात भी कोई बुरा मानने की होती है क्या?
-बेटी! मैं रोज देखता हूँ। तुम यहाँ आती हो। दूध के डिब्बे में से एक लोटा दूध निकालती हो और डिब्बे में एक लोटा पानी मिला देती हो? क्यों करती हो तुम ऐसा?
लड़की ने नज़रें नीची कर ली।कहा--- बाबा! मैं जिस गाँव में दूध बेचने जाती हूँ ना..वहाँ मेरी सगाई पक्की हुई है। मेरे वो वहीं रहते हैं। जबसे सगाई हुई है मैं रोज एक लोटा दूध उन्हें लेजाकर देती हूँ। दूध कम न पड़े इसलिये एक लोटा पानी डिब्बे में मिला देती हूँ...
--पगली तू ये क्या कर रही है? कभी हिसाब भी लगाया है तूने? कितना दूध- पानी कर चुकी है अभी तक तू। अपने मंगेतर के लिये?
--लड़की नें नज़रें तनिक उठाते हुऐ उत्तर दिया-- बाबा! जब सारा जीवन ही उसे सौंपने का फैसला हो गया तो फिर हिसाब क्या लगाना? जितना दे सकी दिया..जितना दे सकूंगी देती रहूंगी।
मलूक दास जी के हाथ से माला छूट कर नदी में जा गिरी। उस बाला के पाँव पकड़ लिये उन्होंने---बेटी! तूने तो मेरी आँखें ही खोल दी। माला का हिसाब लगाते लगाते मैंने तो जप का मतलब ही नहीं समझा। जब सारा जीवन ही उसे सौंप दिया तो क्या हिसाब रखना की कितनी माला फेर ली?

बहुत छोटी सी कहानी



मैं एक गृह प्रवेश की पूजा में गया। पंडित जी पूजा करा रहे थे।
पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई। पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा।”
लोग चुटकियों से हवन सामग्री लेकर अग्नि में डाल देते। गृह मालिक को स्वाहा कहते ही अग्नि में घी डालने की ज़िम्मेदीरी सौंपी गई।
हर व्यक्ति थोड़ी सामग्री डालता, इस आशंका में कि कहीं हवन खत्म होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। गृह मालिक भी बूंद-बूंद घी डाल रहे थे। उनके मन में भी डर था कि घी खत्म न हो जाए।
मंत्रोच्चार चलता रहा, स्वाहा होता रहा और पूजा पूरी हो गई।
सबके पास बहुत सी हवन सामग्री बची रह गई। घी तो आधा से भी कम इस्तेमाल हुआ था।
हवन पूरा होने के बाद पंडित जी ने कहा कि आप लोगों के पास जितनी सामग्री बची है, उसे अग्नि में डाल दें। गृह स्वामी से भी उन्होंने कहा कि आप इस घी को भी कुंड में डाल दें।
एक साथ बहुत सी हवन सामग्री अग्नि में डाल दी गई। सारा घी भी अग्नि के हवाले कर दिया गया। पूरा घर धुंए से भर गया। वहां बैठना मुश्किल हो गया।
एक-एक कर सभी कमरे से बाहर निकल गए।
अब जब तक सब कुछ जल नहीं जाता, कमरे में जाना संभव नहीं था।काफी देर तक इंतज़ार करना पडा, सब कुछ स्वाहा होने के इंतज़ार में।
मेरी कहानी यहीं रुक जाती है।
उस पूजा में मौजूद हर व्यक्ति जानता था कि जितनी हवन सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुंड में ही डालना है। पर सबने उसे बचाए रखा। सबने बचाए रखा कि आख़िर में सामग्री काम आएगी।
ऐसा ही हम करते हैं। यही हमारी फितरत है। हम अंत के लिए बहुत कुछ बचाए रखते हैं।
ज़िंदगी की पूजा खत्म हो जाती है और हवन सामग्री बची रह जाती है। हम बचाने में इतने खो जाते हैं कि जब सब कुछ होना हवन कुंड के हवाले है, उसे बचा कर क्या करना। बाद में तो वो सिर्फ धुंआ ही देगा।
संसार हवन कुंड है और जीवन पूजा। एक दिन सब कुछ हवन कुंड में समाहित होना है। अच्छी पूजा वही है, जिसमें हवन सामग्री का सही अनुपात में इस्तेमाल हो l

हवन

🕉 हवन 🕉
एक वेबसाइट रिपोर्ट के अनुसार फ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः आम की लकड़ी पर किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फ़ॉर्मिक एल्डिहाइड नमक गैस उत्पन्न होती है जो की खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओ को मारती  है तथा वातावरण को शुद्द करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला। गुड़ को जलने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है।

(२) टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गयी अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाये अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।
(३) हवन की मत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च करी की क्या वाकई हवन से वातावरण शुद्द होता है और जीवाणु नाश होता है अथवा नही. उन्होंने ग्रंथो. में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलने पर पाया की ये विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी काम किया और देखा की सिर्फ आम की लकड़ी १ किलो जलने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलायी गयी एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद बॅक्टेरिया का स्तर ९४ % कम हो गया। यही नही. उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजुद जीवाणुओ का परीक्षण किया और पाया की कक्ष के दरवाज़े खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के २४ घंटे बाद भी जीवाणुओ का स्तर सामान्य से ९६ प्रतिशत कम था। बार बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ की इस एक बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था। यह रिपोर्ट
एथ्नोफार्माकोलोजी के शोध पत्र (resarch journal of Ethnopharmacology 2007) में भी दिसंबर २००७ में छप चुकी है।
रिपोर्ट में लिखा गया की हवन के द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों फसलों को नुकसान पहुचाने वाले बैक्टीरिया का नाश होता है। जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।

क्या हो हवन की समिधा (जलने वाली लकड़ी)
समिधा के रूप में आम की लकड़ी सर्वमान्य है परन्तु अन्य समिधाएँ भी विभिन्न कार्यों हेतु प्रयुक्त होती हैं। 

सूर्य की समिधा मदार की, 
चन्द्रमा की पलाश की, 
मङ्गल की खैर की,
बुध की चिड़चिडा की, 
बृहस्पति की पीपल की, 
शुक्र की गूलर की, 
शनि की शमी की, 
राहु दूर्वा की और
केतु की कुशा की समिधा कही गई है।

मदार की समिधा रोग को नाश करती है,
पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली,
पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, 
गूलर की स्वर्ग देने वाली, 
शमी की पाप नाश करने वाली, 
दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और 
कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है।
हव्य (आहुति देने योग्य द्रव्यों) के प्रकार प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वायुमण्डल रहते हैं। सर्दी, गर्मी,
नमी, वायु का भारीपन, हलकापन, धूल, धुँआ, बर्फ आदि का भरा होना। विभिन्न प्रकार के कीटणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं
समाप्ति का क्रम चलता रहता है। इसलिए कई बार वायुमण्डल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार अस्वास्थ्यकर हो जाता है। इस
प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं, जो इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं।

होम द्रव्य

होम-द्रव्य अथवा हवन सामग्री वह जल सकने वाला पदार्थ है जिसे यज्ञ (हवन/होम) की अग्नि में मन्त्रों के साथ डाला जाता है।
(१) सुगन्धित : केशर, अगर, तगर, चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री, छड़ीला, कपूर, कचरी, बालछड़, पानड़ी आदि
(२) पुष्टिकारक : घृत, गुग्गुल ,सूखे फल, जौ, तिल, चावल, शहद, नारियल, आदि
(३) मिष्ट - शक्कर, छूहारा, दाख आदि
(४) रोग नाशक -गिलोय, जायफल, सोमवल्ली, ब्राह्मी, तुलसी, अगर, तगर, तिल, इंद्रा, जव, आमला, मालकांगनी, हरताल, तेजपत्र, प्रियंगु, केसर, सफ़ेद चन्दन, जटामांसी, आदि

उपरोक्त चारों प्रकार की वस्तुएँ हवन में प्रयोग होनी चाहिए। अन्नों के हवन से मेघ-मालाएँ अधिक अन्न उपजाने वाली वर्षा करती हैं। सुगन्धित द्रव्यों से विचारों शुद्ध होते हैं, मिष्ट पदार्थ स्वास्थ्य को पुष्ट एवं शरीर को आरोग्य प्रदान करते हैं,
इसलिए चारों प्रकार के पदार्थों को समान महत्व दिया जाना चाहिए। यदि अन्य वस्तुएँ उपलब्ध न हों, तो जो मिले उसी
से अथवा केवल तिल, जौ, चावल से भी काम चल सकता है।

सामान्य हवन सामग्री

तिल, जौं, सफेद चन्दन का चूरा , अगर, तगर , गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र, पानड़ी, लौंग, बड़ी इलायची, गोला, छुहारे, नागर, मौथा, इन्द्र जौ, कपूर कचरी, आँवला,गिलोय, जायफल, ब्राह्मी ।