ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।


ब्राह्मण कोई जन्म से नहीं होता। और जिन्होंने समझ लिया है कि वे जन्म से ब्राह्मण हैं, उनसे ज्यादा भ्रांत और कोई भी नहीं। उनकी स्थिति तो शूद्रों से भी गयी बीती है। शूद्र को कम से कम यह तो ख्याल है कि मै शूद्र हूं। महात्मा गांधी जैसे लोगों ने उसका भी ख्यालमिटाने की कोशिश की है। उसको भी कहा कि हरिजन है तू, शूद्र नहीं। जैसे ब्राह्मण की भ्रांति है कि जन्म से ब्राह्मण, ऐसे अब शूद्र को भी भ्रांति पैदा करवा दी है भले भले लोगों ने, जिनको तुम महात्मा कहते हो कि तू हरिजन है। हरिजन ब्राह्मण का ही दूसरा नाम हुआ। जिसने हरि को जाना वह हरिजन, जिसने ब्रह्म को जाना वह ब्रह्म, वह ब्राह्मण। हरिजन कह दिया, उसको एक भ्रांति चलती ही थी कि कुछ लोग जन्म से ब्राह्मण हैं, एक दूसरी भ्रांति पैदा करवा दी कि कुछ लोग जन्म से हरिजन हैं। अब हरिजन अकड़े हैं। क्योंकि उनको भी अहंकार जगा है ब्राह्मण होने का। ब्राह्म्ण भी ब्राह्मण नहीं है, हरिजन भी हरिजन नहीं हैं।

मुझसे अगर तुम पूछो तो मैं कहूंगा हम सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं। जन्म से तो हम सब शूद्र होते है न कोई ब्राह्मण होता न कोई वैश्य होता, न कोई क्षत्रिय होता, न कोई हरिजन होता। जन्म से तो हम सब शुद्र होते हैं क्योंकि जन्म से हम सब अज्ञानी होते हैं। फिर जन्म के बाद हम क्या यात्रा करेंगे इस पर निर्भर करेगा। सौ में निन्यानबे लोग तो शूद्र ही रह जाएंगे। सद्गुरु को न पकड़ेंगे तो शूद्र ही रह जाएंगे। सौ में से एकाध ब्राह्मण हो पाएगा। एकाध भी हो जाए तो बहुत। एकाध भी हो जाए तो काफी।

और सबसे बड़ी जो बाधा है वह यह कि हम जन्म के साथ ही मान लेते हैं कि ब्राह्मण हैं। बस, वहीं चूक हो गयी। जैसे बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, तो क्यों इलाज करवाये? क्यों चिकित्सक के पास जाए? क्यों निदान करवाये? क्यों औषधि ले? बीमार आदमी मान ले कि मैं स्वस्थ हूं, बात खत्म हो गयी। ब्राह्मण तो बीमार था सदियों से, इधर महात्मा गांधी की कृपा से शूद्र भी बीमार हो गया है। उसको भी हरिजन होने की अस्मिता छायी जा रही है। यह जो हिन्दुओं और हरिजनों के बीच जगह जगह संघर्ष हो रहा है, इसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ नहीं है, ख्याल रखना, इसमें हरिजनों में पैदा हो गयी अकड़ का भी हाथ है। 

मैं यह नहीं कह रहा हूं कि जो हो रहा है वह ठीक हो रहा है। ब्राह्मण जो कर रहे हैं वह तो बिलकुल गलत है, पाप है। मगर लोग अगर यह सोचते हों कि उसमें सिर्फ ब्राह्मणों का हाथ. है, तो गलत बात है, उसमें हरिजन में जो अकड़ पैदा हो गयी है हरिजन होने की, उसका भी बड़ा हाथ है। और स्वभावत: ब्राह्मण तो गलत रहा है सदियों सदियों से, इसलिए उसकी अकड़ तो बहुत पुरानी है, मगर ख्याल रखना, नया मुसलमान जोर से नमाज पढ़ता है। और नया मुसलमान रोज मस्जिद जाता है, पुराना मुसलमान कभी चूक चाक भी जाए। नये मुसलमान की अकड़ बहुत होती है।

तौ जो पागलपन धीरे धीरे ब्राह्मणों में तो खून में मिल गया था, जिसका उन्हें सीधा साधा बोध भी नहीं रह गया था, वह नया पागलपन हरिजनों में भी छा गया है। और उनका नया नया है। और नये रोग खतरनाक होते हैं; उनका आघात खतरनाक होता है। वे बड़ी अकड़ से चल रहे हैं। वे हर चीज में अकड़ खड़ी करते हैं। वह कहता है, हमें मंदिर में जाने दो।

अब बड़े मजे की बात है, महात्मा गांधी जीवन भर कोशिश किये कि हरिजनों को मंदिर में प्रवेश मिलना चाहिए। और महात्मा गांधी को इतनी भी समझ न आयी कि जो मंदिर में बैठे जन्मों जन्मों से पूजा कर रहे हैं उनको क्या खाक कुछ मिला है! जब ब्राह्मणों को ही पूजा करते करते कुछ नहीं मिला तो ये गरीब हरिजनों को भी उन्हीं मंदिरों में प्रवेश करवाने से क्या मिल जाने वाला है? अगर मुझसे पूछो तो मैं कहूंगा हरिजनों, भूलकर भी मंदिरों में मत जाना। जो मंदिरों में हैं उनको ही कुछ नहीं मिला, तुम अब इस झंझट में कहां पड़ रहे हो! तुम परमात्मा को विराट आकाश में खोजो, इन दीवालों में बद परमात्मा नहीं है।

लेकिन, नहीं महात्मा गांधी समझा रहे थे कि महाक्रांति है। हरिजनों को मंदिरों में प्रवेश दिलवा देने से महाक्रांति हो जाएगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, तो मंदिरों में बैठे ही हुए थे, इनकी जिंदगी में कौनसी क्रांति हो गयी? इनकी जिंदगी कूड़ा करकट है, उसी में तुम हरिजनों को भी सम्मिलित कर दो। और उस कूड़ा  करकट होने के लिए वे दीवाने हो गये। दंगे फसाद शुरू हो गये।

इस दुनिया में रोग पैदा करवा देना बड़ा आसान है। महात्मा गांधी धार्मिक व्यक्ति नहीं हैं, राजनैतिक व्यक्ति हैं, उन्होंने हरिजनों का उपयोग राजनैतिक चालबाजी की तरह कर लिया। हरिजन शब्द पुराना है, कोई महात्मा गांधी की अपनी ईजाद नहीं। लेकिन हरिजन हम कहते थे उसको जो हरि का था। नानक, कबीर, दादू, भीखा, ये हरिजन थे। राबिया, मीरा, सहजो, ये हरिजन थे।

हरिजन बड़ी ऊंची बात है। उसका ठीक वही अर्थ है जो ब्राह्मण का। क्योंकि ब्राह्मण का अर्थ मर गया था धीरे धीरे और शब्द थोथा हो गया था जन्म के साथ जुड़ गया था, इसलिए संतों ने हरिजन खोजा। गांधी ने उस शब्द की भी हत्या कर दी, उसको भी मार डाला।

ऐसे ही विनोबा ने सर्वोदय शब्द की हत्या कर दी। वह भी पुराना शब्द है, कोई सोलह सौ साल पुराना शब्द है। सबसे पहले जैन शास्त्रों में उसका उल्लेख हुआ है। अमृतचन्द्राचार्य ने सबसे पहले उसका उल्लेख किया है सर्वोदय, और बड़ा प्यारा उल्लेख किया है। खराब कर दिया विनोबा ने।

राजनीतिज्ञों के हाथ में असली सिक्के भी चले जाएं तो खोटे हौ जाते हैं। दुष्ट संगति का बुरा प्रभाव पड़ता है। अमृतचन्द्राचार्य ने सर्वोदय की व्याख्या की है समाधि को उपलब्ध वे लोग, जिनके प्राणों में सबके उदय की आकांक्षा है। सबके उसमें पत्थर, पौधे, पशु, पक्षी, मनुष्य, सब सम्मिलित हैं। जिनके भीतर समस्त अस्तित्व को समाधि की तरफ ले जाने की महत्वाकांक्षा जगी है, वे सर्वोदयी है।

और आजकल का सर्वोदयी? जिसको विनोबाजी सर्वोदयी कहते हैं, वह क्या है? वह केवल राजनीति के सोपान चढ़ रहा है। सर्वोदय से शुरू करता है क्योंकि सर्वोदय से ही शुरू करना आसान है। किसी की गर्दन दबानी हो तो पैर दबाने से शुरू करना, ख्याल रखना, गणित ऐसा है, एकदम गर्दन दबाओगे तो किसी की दबा न पाओगे। पहले पैर दबाना। पैर दबवाने को तो कोई भी राजी हो जाएगा। फिर धीरे धीरे ऊपर बढ़ते जाना, फिर गर्दन दबा देना।

सर्वोदय एक राजनैतिक चालबाजी है। और इसलिए जयप्रकाश नारायण प्रगट होकर रहे। जीवन दान दिया था सर्वोदय के लिए, मगर जीवन का अत हो रहा है इस देश के सबसे गर्हित राजनीतिज्ञों के बीच में।

सुंदर शब्द भी गलत लोगों के हाथ में पड़कर असुंदर हो जाते हैं। ब्राह्मण शब्द बड़ा प्यारा है, अलौकिक है ब्रह्म को जो जाने। बुद्ध ने भी यही परिभाषा की है ब्रह्म को जो जाने, ब्रह्म मे जो रत हो।

परमात्मा विराट है

संकीर्ण चित्त से उसे पाया नहीं जा सकता..

परमात्मा की खोज में हजारों हजार उपाय किए गए हैं। लेकिन जब भी किसी ने उसे पाया है, तो साथ में यह भी पाया कि उपाय से वह नहीं मिलता है, मिलता तो प्रसाद से है। उसकी अनुकंपा से मिलता है।

लेकिन बात बहुत जटिल हो जाती है, क्योंकि उसकी अनुकंपा बिना प्रयास के नहीं मिलती। इसे थोड़ा ठीक से समझ लें। कि जिन्हें भी उस मार्ग पर जाना है, इस विवाद, उलझन की स्थिति को बिना समझे वे न जा सकेंगे।
कुछ उदाहरण लें। कोई शब्द भूल गया, किसी का नाम भूल गया है। लाख उपाय करते हैं याद करने का। लगता है जीभ पर रखा है। अब आया, अब आया, फिर भी आता नहीं। सब तरफ से सिर मारते हैं। हजार तरकीबों से खोजने की कोशिश करते हैं। और भीतर बड़ी बेचैनी मालूम पड़ती है, क्योंकि यह भी लगता है कि बिलकुल जीभ पर रखा है। इतने पास है, और फिर भी इतने दूर मालूम होता है। आखिर थक जाते हैं। क्योंकि आदमी क्या करेगा? उपाय कर लेगा, बेचैन हो लेगा, फिर थक जाएगा। थक कर दूसरे काम में लग जाते हैं। अखबार पढ़ते हैं, बाहर मकान के घूमने निकल जाते हैं, मित्र से गपशप करते हैं, चाय पीते हैं। और अचानक, अनायास, जब कि कोई भी प्रयास नहीं कर रहे थे, वह नाम उठ कर याद में आ जाता है।

जब हम बहुत चेष्टा करते हैं, तब हमारी चेष्टा भी बाधा बन जाती है। क्योंकि बहुत चेष्टा का अर्थ है कि मन में बड़ा तनाव हो जाता है। जब हम अति आग्रह से खोज करते हैं, तब हमारा आग्रह भी अड़चन हो जाता है, क्योंकि उतने आग्रह से हम खुले नहीं रह जाते, बंद हो जाते हैं। और मन जब बहुत एकाग्र होता है, तब एकाग्रता के कारण संकीर्णता पैदा हो जाती है। चित्त का आकाश छोटा हो जाता है। और संकीर्णता इतनी छोटी हो सकती है कि एक छोटा सा शब्द भी उसमें से पार न हो सके।

एकाग्रता का अर्थ ही संकीर्णता है। जब तुम चित्त को एकाग्र करते हो तो उसका अर्थ है, सब जगह से बंद और केवल एक तरफ खुला हुआ। एक छेद भर खुला है, जिससे तुम देखते हो। बाकी सब बंद कर लिया। तभी तो एकाग्रता होगी।

जैसे किसी आदमी के घर में आग लगी है, तो उसका मन घर की आग पर एकाग्र हो जाता है। उस समय पैर में जूता काट रहा है, इसका पता न चलेगा। उस समय किसी ने उसकी जेब में हाथ डाल कर रुपए निकाल लिए, इसका पता न चलेगा। उस समय कुछ भी पता न चलेगा। उस समय वह आग बुझाने में लगा है। हाथ जल जाएगा, तो भी पीछे पता चलेगा। चित्त एकाग्र है। सारी शक्ति आग पर लगी है। सब भूल गया।

एकाग्रता का अर्थ संकीर्णता है। जब तुम प्रयास करते हो किसी एक चीज को पाने का, एक नाम ही याद नहीं आ रहा है, तब तुम्हारा चित्त एकाग्र हो जाता है। एकाग्र होते ही संकीर्ण हो जाता है।

और जटिलता यही है। परमात्मा विराट है। संकीर्ण चित्त से उसे पाया नहीं जा सकता। एक छोटा शब्द याद नहीं आता, तो उस परमात्मा का नाम तो कैसे याद आएगा? और जीभ पर ही नहीं रखा है, हृदय पर रखा है; याद नहीं आता। फिर अनायास जब तुम कुछ भी नहीं कर रहे होते, चित्त शिथिल हो जाता है। द्वार-दरवाजे खुल जाते हैं। एकाग्रता की संकीर्णता विलीन हो जाती है। फिर तुम खुल गए। उस क्षण में परमात्मा प्रवेश कर जाता है।

त्राटक विधि और उसके खतरे


अपने कमरे के दरवाजे बंद कर दें, और एक बहुत बड़ा दर्पण अपने सामने रख लें। कमरा अंधेरा होना चाहिए। और फिर दर्पण के पास एक हल्की रोशनी का लैंप रख लें इस तरह कि इसकी छाया शीशे में दिखलाई न पड़े। केवल आपका चेहरा ही दर्पण में प्रतिबिंबित हो। फिर लगातार दर्पण में अपनी स्वयं की आंखों में देखें। पलक न झपके। यह चालीस मिनट का प्रयोग है और दो या तीन दिन में आप अपनी आंखों की पलक न झपकने देने में समर्थ हो जाएंगे।

यदि आंसू भी आए तो आने दें, परन्तु पलक न झपके इसके लिए पूर्ण प्रयास करें। लगातार अपनी आंखों में देखते जाएं। दृष्टि का कोण न बदलें। देखते जाएं लगातार अपनी ही आंखों में और दो या तीन दिन में ही आप सारे कंपनों से अवगत हो जाएंगे। आपका चेहरा नए रूप लेने लगेगा। हो सकता है कि आप डर जाएं।
शीशे में आपका चेहरा बदल जाएगा। कभी बिलकुल भिन्‍न ही चेहरा प्रकट होगा, जिसे कि आपने कभी नहीं देखा। वास्तव में, ये सारे चेहरे आपके हैं। अब अर्धचेतन मन विस्फोट करना शुरू कर रहा है। ये चेहरे, ये मुखौटे आपके हैं। कभी-कभी पिछले जन्मों के चेहरे भी आ सकते हैं।

`रोजाना चालीस मिनट एक सप्ताह तक देखने के बाद, आपका चेहरा एक प्रवाह, एक धीमी रोशनी का प्रवाह जैसा हो जाएगा। बहुत से चेहरे निरंतर आते-जाते रहेंगे। तीन सप्ताह के बाद आपको याद भी नहीं रहेगा कि आपका चेहरों कौन सा है। आपका अपना ही चेहरा आपको याद नहीं रहेगा, क्योंकि आपने इतने चेहरे आते और जाते देखे हैं कि सब गुम हो गया।

यदि आप इसे चालू रखते हैं, तो तीन सप्ताह बाद किसी दिन भी एक सब से अधिक विचित्र बात होगीः अचानक दर्पण में कोई भी चेहरा नहीं होगा। दर्पण खाली होगा। आप रिक्तता में झांक रहे होंगे। कोई चेहरा भी चेहरा नहीं होगा। इसी क्षण अपनी आंखें बंद कर लें और अचेतन को देखें। जब दर्पण में कोई चेहरों न हो, तभी अपनी आंखें बंद कर लें, भीतर देखें, और आप अचेतन के समक्ष खड़े होंगे।

आप नंगे होंगे, बिलकुल नंगे, जैसे कि आप हैं, सारी प्रवंचनाएं गिर जाएंगी। यह वास्तविकता है। समाज ने कितनी ही तहें निर्मित की हैं, ताकि आप उनके प्रति सजग न हों। इसके लिए एक बार जब आप स्वयं को अपनी नग्नता में, अपनी पूर्ण नग्नता में जान लेते हैं, आप दूसरे ही व्यक्ति होने शुरू हो जाते हैं। तब आप अपने को धोखा नहीं दे सकते। अब आप जानते हैं कि आप क्या है, और जब तक आप न जानें कि आप क्या है, आप रूपांतरित नहीं हो सकते क्योंकि कोई भी रूपांतरण केवल इसी नग्न वास्तविकता में संभव है। यह नग्न वास्तविकता प्रसुप्त बीज है किसी भी रूपांतरण के लिए। कोई प्रवंचना रूपांतरित नहीं हो सकती। जब आपको मूल चेहरों यहां है और आप इसे रूपांतरित कर सकते हैं और वस्तुतः उसे रूपांतरित करने का संकल्प ही रूपांतरण को प्रभावित करता है।
 
परन्तु आपके झूठे चेहरे–आप उन्हें नहीं बदल सकते। मतलब कि आप उन्हें बदल तो सकते हैं, परन्तु रूपांतरित नहीं कर सकते। बदलने से मेरा मतलब है कि आप उनके स्थान पर दूसरे झूठे चेहरे लगा सकते हैं। एक चोर एक साधु हो सकता है। यदि एक अपराधी साधु हो सकता है, तो बहुत ही सरल है मुखौटा का बदलना, किंतु यह रूपांतरण नहीं है। रूपांतरण का मतलब है वही हो जाना जो कि तुम हो असल में, जो कि तुम वस्तुतः हो। अतः जिस क्षण आप अचेतन को अपने समक्ष पाएं, उसका सामना करें, देखें, आप वास्तविकता के आमने-सामने खड़े हैं, आप आपने प्रामाणिक स्वरूप के समक्ष खड़े हैं।

आपका झूठा स्वरूप वहां नहीं है, आपका नाम भी नहीं है, आपकी आकृति भी नहीं है, आपका चेहरा भी नहीं है। प्रकृति की नग्न शक्तियां रह गई हैं और इस नग्न शक्तियों के साथ कोई भी रूपांतरण संभव है, आपके जरा से संकल्प करने मात्र पर, चाहने भर पर। कुछ और नहीं करना है। आप मात्र चाह करें, और चीजें होने लगेंगी। जब आप स्वयं को इस नग्नता में देख लें, तब मात्र इच्छा करें, और जो कुछ भी आप चाहेंगे, वह हो जाएगा।
बाइबिल में, परमात्मा ने कहा–प्रकाश हो और–प्रकाश हो गया। कुरान में, खुदा ने कहा, संसार हो और संसार हो गया। सचमुच, ये कथाएं हैं, संकल्प की कथाएं, जो कि आप में छिपा हुआ है।


 जब आप अपनी नग्न सत्यवत्ता को देखते हैं, मूल, आधारभूत शक्तियों को देखते हैं तो आप एक सृष्टा बन जाते हैं, एक देवता हो जाते हैं। बस कहें, एक शब्द बोलें, और वह हो जाता है। कहें कि प्रकाश हो, और प्रकाश हो जाएगा। अपने प्रामाणिक स्वरूप से साक्षात्कार होने के पहले यदि आप अंधेरे का प्रकाश में रूपांतरित करने की कोशिश कर रहे हैं, तो वह संभव नहीं है।

अतः यह सामना मूल है, आधारभूत है किसी भी धार्मिक घटना के लिए। कितनी ही विधियां आविष्कृत की गई हैं। एकदम हो जाएं ऐसी विधियां भी है, और धीरे-धीरे हों ऐसी विधियां भी हैं। मैंने आपको धीरे-धीरे होने वाली विधि के बारे में बतलाया है। अचानक होने वाली विधियां भी हैं, लेकिन अचानक होने वाली विधि में यह सदैव बड़ा कठिन होता है, क्योंकि अचानक विधि में हो सकता है कि आपकी मृत्यु हो जाएं। अचानक विधि में हो सकता है कि आप पागल हो जाएं, क्योंकि घटना इतनी अचानक होती है कि आप उसके लिए सोच भी नहीं सकते। आप बस गिर पड़ते हैं, भयग्रस्त। गीता में यह होता है। अर्जुन कृष्ण को जोर देकर अपना विराट स्वरूप दिखलाने को कह रहा है। कृष्ण दूसरी चीजों की बात करते चले जाते हैं, लेकिन अर्जुन बार-बार जोर दे रहा है और वह कहता है मुझे दिखलाना पड़ेगा। बिना देखे मैं मान नहीं सकता। यदि आप सचमुच परमात्मा हैं, तो अपना ब्रह्म स्वरूप मुझे दिखलाएं।

कृष्ण उसे दिखलाते हैं, परन्तु वह इतना अचानक होता है कि अर्जुन उसके लिए कतई तैयार नहीं रहता, वह चिल्लाने लगता है और कृष्ण से कहता है–बंद करें! बंद करें इसे! मैं भय से मर रहा हूं। इसलिए याद आप किसी अचानक विधि से इस पर आए, तो यह खतरनाक होगा। कुछ खास विधियां हैं। वे केवल समूह में ही सिद्ध की जा सकती हैं–एक ग्रुप में, जिसमें आप दूसरों को दूसरे आपको सहायता दे सकें।

वास्तव में, आश्रम का निर्माण भी इन्हीं अचानक विधियों के लिए किया गया था, क्योंकि वे अकेले साधी नहीं जा सकतीं। एक समूह ही आवश्‍यकता होती है, दूसरों की जरूरत होती है, एक निरंतर चौकसी की आवश्‍यकता होती है, क्योंकि कभी-कभी आप महीनों के लिए बेहोश होकर गिर पड़ते हैं और तब यदि कोई नहीं हो जो कि जानता हो कि अब क्या करें, तो आपको मृत समझ लिया जाएगा। रामकृष्ण कितनी ही बार गहरी समाधि में चले जाते थे, छह-छह दिन के लिए, दो सप्ताह के लिए, लगातार। उन्हें सचमुच से जबरन खिलाया जाता था: क्योंकि वे बिलकुल ऐसे हो जाते थे, जैसे मूर्च्‍छित हों। एक साधक-समूह की आवश्‍यकता होती है।

अचानक विधियों के लिए, और उसके लिए एक गुरु परम आवश्‍यक है। ये अचानक विधियां, सड़न मैथड़स भारतीय विधियों में से निकाल दी गई–बुद्ध, महावीर व शंकराचार्य के कारण। उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि साधुओं को सदैव यात्रा करते रहना चाहिए। उन्होंने साधुओं को आश्रमों में नहीं रहने दिया। उन्हें तीन दिन से ज्यादा कहीं भी नहीं रहना चाहिए। इसकी जरूरत भी थी, क्योंकि बुद्ध व महावीर के समय में, आश्रम शोषण के केंद्र बन गए थे, वे बड़े भारी व्यापार के केंद्र हो गए थे। इसलिए महावीर और बुद्ध दोनों ने इस बात पर जोर दिया कि संन्यासी तीन दिन से अधिक कहीं भी न रहे। और तीन दिन, एक बड़ी मनोवैज्ञानिक सीमा है, क्योंकि किसी भी स्थान या लोगों से परिचित होने के लिए आपको तीन दिन से अधिक की आवश्‍यकता होती है।

आत्मा

यह सच है कि आत्मा अमर है, ज्ञानस्वरूप है, फिर कैसे अज्ञान में गिरती है?

 ह सवाल महत्वपूर्ण है और बहुत ऊपर से देखे जाने पर समझ में नहीं आ सकेगा। थोड़े भीतर गहरे झांकने से यह बात स्पष्ट हो सकेगी कि ऐसा क्यों होता है। जैसे, इस कमरे में आप हैं और आप इस कमरे के बाहर कभी भी नहीं गए हैं, कभी गए ही नहीं। इस कमरे में आप हैं, बड़े आनंद में हैं, बड़ी शांति में हैं, बड़े सुरक्षित। न कोई भय, न कोई अंधकार, न कोई दुख; लेकिन इस कमरे के बाहर आप कभी नहीं गए हैं।

तो इस कमरे में रहने की दो शर्तें हो सकती हैं: एक तो यह कि आपको कमरे के बाहर जाने की कोई स्वतंत्रता नहीं है। यानी आप जाना भी चाहें तो आप नहीं जा सकते हैं। आप परतंत्र हैं इस कमरे में रहने को–एक तो शर्त यह हो सकती है। दूसरी शर्त यह हो सकती है कि आप स्वतंत्र पूरे हैं बाहर जाने को, लेकिन आप अपनी समझ के कारण बाहर नहीं जाते हैं। क्योंकि बाहर दुख है, क्योंकि बाहर पीड़ा है, बाहर भटक जाना है, बाहर अशांति है। ये दो शर्तें हो सकती हैं।

अगर आप परतंत्र हैं बाहर जाने के लिए, तो आपका सुख, आपकी शांति, आपकी सुरक्षा, सभी थोड़े दिनों में आपको कष्टदायी हो जाएंगी, क्योंकि परतंत्रता से बड़ा कष्ट और कोई भी नहीं है। अगर आपको सुख में रहने के लिए भी बाध्य किया जाए तो सुख भी दुख हो जाएगा।

बाध्यता इतना बड़ा दुख है कि बड़े से बड़े सुख को यानी एक आदमी को हम कहें कि हम तुम्हें सारे सुख देते हैं सिर्फ स्वतंत्रता नहीं, यानी यह भी स्वतंत्रता नहीं देते कि अगर तुम चाहो तो इन सुखों को भोगने से इनकार कर सको, तुम्हें भोगना ही पड़ेगा तो परतंत्रता इतना बड़ा दुख है कि सारे सुखों को मिट्टी कर देगी। और अगर यह शर्त हो इस कमरे के भीतर रहने की कि बाहर नहीं जा सकते, सुख नहीं छोड़ सकते, तो ये सब सुख अत्यंत दुख हो जाएंगे। और बाहर निकलने की प्यास इतनी तीव्र हो जाएगी, विद्रोह इतना गहरा हो जाएगा, जिसका हिसाब लगाना मुश्किल है। और यह शर्त कि बाहर नहीं जा सकोगे, अनिवार्य रूप से बाहर ले जाने का कारण बनेगी। और यह भी हो सकता है फिर कि बाहर दुख हो, लेकिन फिर भी आप भीतर आना पसंद न करें, क्योंकि भीतर से बाहर जाने की कोई आज्ञा नहीं है। एक स्थिति यह है।

दूसरी स्थिति यह है कि आपको पूरी स्वतंत्रता है, आप बाहर जाएं या भीतर रहें। लेकिन आप कभी बाहर नहीं गए हैं। आपने भीतर के सब सुख, सब शांति, सब ज्ञान जाना है। लेकिन बाहर अज्ञात है, और आप बाहर जाते हैं। और जाएंगे तो ही तो जान सकेंगे कि बाहर क्या है! जानेंगे, जानने के लिए यात्रा करेंगे, भटकेंगे, दुख भोगेंगे, तब फिर वापस लौटेंगे। और अब जब आप वापस आएंगे तो पहले का ही सुख आपको करोड़ गुना ज्यादा मालूम पड़ेगा, क्योंकि बीच में दुख का एक अनुभव, अज्ञान का एक अनुभव पीड़ा से आप गुजरे हैं।

हो सकता है कि पहले वह कमरे के भीतर के सुख आपको सुख भी न मालूम पड़े हों, क्योंकि आपको कोई दुख न था; और प्रकाश आपको प्रकाश न मालूम पड़ा हो, क्योंकि आपने अंधेरा न देखा था। अब जब आप बाहर के जगत से वापस लौटते हैं, तब आप जानते हैं कि प्रकाश क्या है। क्योंकि आपने अंधेरा जाना, क्योंकि आपने पीड़ा जानी, इसलिए आप अब आनंद को पहचानते हैं। तो पहले का सुख रहा भी होगा तो भी बोधपूर्वक न रहा होगा, कांशस नहीं हो सकते हैं उसके आप। आप मूर्च्छित ही रहे होंगे, उस सुख में भी मूर्च्छित रहे होंगे। लेकिन जब बाहर के सारे दुखों को झेल कर, बड़ी कठिनाइयों से वापस कदम उठा-उठा कर अपने घर पर आप पहुंचते हैं, तब आप सचेतन पहुंचते हैं।

यानी मेरा कहना यह है कि आत्मा उसी अवस्था में पुनः पहुंचती है, जिस अवस्था में वह थी। यह संसार की पूरी यात्रा उसे किसी नई जगह नहीं पहुंचा देती है–वहीं, जहां वह सदा थी। लेकिन इस यात्रा के बाद पहुंचना अनुभव को सचेतन, गहरा, अदभुत बना देता है। यानी वही स्थिति अब मोक्ष मालूम होती है–वही स्थिति! वह स्थिति तब भी थी, लेकिन तब वह मोक्ष न थी, हो सकता है, तब वह बंधन जैसी ही मालूम पड़ी हो। क्योंकि आपको विपरीत कोई अनुभव न था।

आत्मा स्वतंत्र है स्वयं के बाहर जाने के लिए, इसके लिए कोई परतंत्रता नहीं है। आत्मा स्वतंत्र है भटकने के लिए। और स्वतंत्रता का हमेशा यही अर्थ होता है, जहां भूल करने की स्वतंत्रता न हो, वहां स्वतंत्रता नहीं है। भूल करने की स्वतंत्रता गहरी से गहरी स्वतंत्रता है।

आत्मा स्वतंत्र है, पहली बात। यानी आत्मा अमर है, आत्मा ज्ञानपूर्ण है; उतना ही गहरा यह सत्य भी है कि आत्मा स्वतंत्र है, उस पर कोई परतंत्रता नहीं है। स्वतंत्रता का मतलब होता है कि वह चाहे तो सुख उठाए, चाहे तो दुख उठाए; चाहे तो ज्ञान में जीए और चाहे तो अंधकार में खो जाए; चाहे तो वासना में जीए और चाहे वासना से मुक्त हो जाए। स्वतंत्रता का मतलब यह है कि ये दोनों मार्ग उसके लिए बराबर खुले हुए हैं। और इसलिए बहुत अनिवार्य है कि स्वतंत्रता की यह संभावना उसे उन स्थितियों में ले जाएगी, जो दुखदायी हों। और तभी उस अनुभव से वह वापस लौट सकती है।

तो मैंने जैसा कहा निगोद, निगोद वह स्थिति है, जहां आत्माएं वही हैं, जो वे हैं। निगोद वह स्थिति है, जहां उन्होंने कोई विपरीत अनुभव नहीं किया। निगोद वह स्थिति है, जहां उन्होंने स्वतंत्रता का उपयोग नहीं किया। इसलिए निगोद एक परतंत्रता की स्थिति है।

संसार वह स्थिति है, जहां आत्मा ने स्वतंत्रता का उपयोग करना शुरू किया। वह भटकी, उसने भूलें कीं, उसने दुख पाए, उसने शरीर ग्रहण किए, उसने न मालूम कितने प्रकार के शरीर ग्रहण किए, उसने हजारों तरह की वासनाएं पालीं और पोसीं और प्रत्येक वासना के अनुकूल शरीरों को ग्रहण किया। यह भी उसकी स्वतंत्रता है। यानी अगर मैंने शरीर ग्रहण किया है तो यह मेरा डिसीजन है, यह मेरा निर्णय है। इसमें दुनिया में कोई मुझे धक्के नहीं दे रहा है कि तुम शरीर ग्रहण करो। यह मेरी परम स्वतंत्रता की संभावना का ही एक हिस्सा है कि मैं शरीर ग्रहण करूं।

फिर मैं कौन सा शरीर ग्रहण करूं, यह भी मेरी स्वतंत्रता है–कि मैं चींटी बनूं, कि हाथी बनूं, कि आदमी बनूं, कि देवता बनूं, कि प्रेत बनूं, क्या बनूं, यह भी सवाल मेरे ऊपर ही निर्भर है। इसके लिए भी कोई मुझे धक्के नहीं दे रहा है। लेकिन चूंकि मेरी आत्मा स्वतंत्र है, इसलिए मैं इन सारी चीजों का उपयोग कर सकता हूं। और उपयोग के बाद ही मैं इनसे मुक्त हो सकता हूं, इनके पहले मुक्त भी नहीं हो सकता।

इसलिए निगोद में जो आत्मा है, वह अमुक्त है। अमुक्त का कुल मतलब इतना है कि उसने स्वतंत्रता का उपभोग ही नहीं किया।

मन शूद्र है अथवा ब्राह्मण ?

देह शूद्र है। मन वैश्य है। आत्मा क्षत्रिय है। परमात्मा ब्राह्मण। इसलिए ब्रह्म परमात्मा का नाम है। ब्रह्म से ही ब्राह्मण बना है।


देह शूद्र है। क्यों? क्योंकि देह में कुछ और है भी नहीं। देह की दौड़ कितनी है? खा लो, पी लो, भोग कर लो, सो जाओ। जीओ और मर जाओ। देह की दौड़ कितनी है! शूद्र की सीमा है यही। जो देह में जीता है, वह शूद्र है। शूद्र का अर्थ हुआ. देह के साथ तादात्म्य। मैं देह हूं? ऐसी भावदशा. शूद्र।

मन वैश्य है। मन खाने पीने से ही राजी नहीं होता। कुछ और चाहिए। मन यानी और चाहिए। शूद्र में एक तरह की सरलता होती है। देह में बड़ी सरलता है। देह कुछ ज्यादा मतों नहीं करती। दो रोटी मिल जाएं। सोने के लिए छप्पर मिल जाए। बिस्तर मिल जाए। जल मिल जाए। कोई प्रेम करने को मिल जाए। प्रेम देने लेने को मिल जाए। बस, शरीर की मांगें सीधी साफ हैं, थोड़ी हैं, सीमित हैं। देह की मांगें सीमित हैं। देह कुछ ऐसी बातें नहीं मांगती, जो असंभव है। देह को असंभव में कुछ रस नहीं है। देह बिलकुल प्राकृतिक है।

इसलिए मैं कहता हूं कि सभी शूद्र की तरह पैदा होते हैं, क्योंकि सभी देह की तरह पैदा होते हैं। जब और और की वासना उठती है, तो वैश्य। वैश्य का मतलब है और धन चाहिए।

फोर्ड अपने बुढ़ापे तक हेनरी फोर्ड और नए धंधे खोलता चला गया। किसी ने उसकी अत्यंत वृद्धावस्था में, मरने के कुछ दिन पहले ही पूछा उससे कि आप अभी भी धंधे खोलते चले जा रहे हैं! आप के पास इतना है; इतने और नए धंधे खोलने का क्या कारण है?

वह नए उद्योग खोलने की योजनाएं बना रहा था। बिस्तर पर पड़ा हुआ भी! मरता हुआ भी! हेनरी फोर्ड ने क्या कहा, मालूम? हेनरी फोर्ड ने कहा. मैं नहीं जानता कि कैसे रुकूं। मैं रुकना नहीं जानता। मैं जब तक मर ही न जाऊं, मैं रुक नहीं सकता। 

यह वैश्य की दशा है। वह कहता है, और। इतना है, तो और। ऐसा मकान है, तो और थोड़ा बड़ा। इतना धन है, तो और थोड़ा ज्यादा धन। 

देह शूद्र है, और सरल है। शूद्र सदा ही सरल होते हैं। मन बहुत चालबाज, चालाक, होशियार, हिसाब बिठाने वाला है। मन की सब दौडे हैं। मन किसी चीज से राजी नहीं है। मन व्यवसायी है। वह फैलाए चला जाता है। वह जानता ही नहीं, कहा रुकना। वह अपनी दुकान बड़ी किए चला जाता है! बड़ी करते करते ही मर जाता है।

आत्मा क्षत्रिय है। क्यों? क्योंकि क्षत्रिय को न तो इस बात की बहुत चिंता है कि शरीर की जरूरतें पूरी हो जाएं; जरूरत पड़े तो वह शरीर की सब जरूरतें छोड़ने को राजी है। और क्षत्रिय को इस बात की भी चिंता नहीं है कि और और। अगर क्षत्रिय को इस बात की चिंता हो, तो जानना कि वह वैश्य है, क्षत्रिय नहीं है।
क्षत्रिय का मतलब ही यह होता है संकल्प का आविर्भाव। प्रबल संकल्प का आविर्भाव। महा संकल्प का आविर्भाव। और महा संकल्प या प्रबल संकल्प के लिए एक ही चुनौती है, वह है कि मैं कौन हूं इसे जान लूं।

शूद्र शरीर को जानना चाहता है। उतने में ही जी लेता है। वैश्य मन के साथ दौड़ता है। मन को पहचानना चाहता है। क्षत्रिय, मैं कौन हूं इसे जानना चाहता है। जिस दिन तुम्हारे भीतर यह सवाल उठ आए कि मैं कौन हूं, तुम क्षत्रिय होने लगे। अब तुम्हारी धन इत्यादि दौड़ो में कोई उत्सुकता नहीं रही। एक नयी यात्रा शुरू हुई अंतर्यात्रा शुरू हुई।

तुम यह जानते हो कि इस देश में जो बड़े से बड़े ज्ञानी हुए सब क्षत्रिय थे। बुद्ध, जैनों के चौबीस तीर्थंकर, राम, कृष्ण सब क्षत्रिय थे! क्यों? होना चाहिए सब ब्राह्मण, मगर थे सब क्षत्रिय। क्योंकि ब्राह्मण होने के पहले क्षत्रिय होना जरूरी है। जिसने जन्म के साथ अपने को ब्राह्मण समझ लिया, वह चूक गया। उसे पता ही नहीं चलेगा कि बात क्या है!

और जो जन्म से ही अपने को ब्राह्मण समझ लिया और सोच लिया कि पहुंच गया, क्योंकि जन्म उसका ब्राह्मण घर में हुआ है, उसे संकल्प की यात्रा करने का अवसर ही नहीं मिला, चुनौती नहीं मिली।

इस देश के महाज्ञानी क्षत्रिय थे। हिंदुओं के अवतार, जैनों के तीर्थंकर, बौद्धों के बुद्ध सब क्षत्रिय थे। इसके पीछे कुछ कारण है। सिर्फ एक परशुराम को छोड़कर, कोई ब्राह्मण अवतार नहीं है। और परशुराम बिलकुल ब्राह्मण नहीं हैं। उनसे ज्यादा क्षत्रिय आदमी कहां खोजोगे! उन्होंने क्षत्रियों से खाली कर दिया पृथ्वी को कई दफे काट काटकर। वे काम ही जिंदगीभर काटने का करते रहे। उनका नाम ही परशुराम पड़ गया, क्योंकि वे फरसा लिए घूमते रहे। हत्या करने के लिए परशु लेकर घूमते रहे। परशु वाले राम ऐसा उनका नाम है।

वे क्षत्रिय ही थे। उनको भी ब्राह्मण कहना बिलकुल ठीक नहीं है, जरा भी ठीक नहीं है। उनसे बडा क्षत्रिय खोजना मुश्किल है! जिसने सारे क्षत्रियों को पृथ्वी से कई दफे मार डाला और हटा दिया, अब उससे बड़ा क्षत्रिय और कौन होगा?

संकल्प यानी क्षत्रिय।

ऐसा समझो कि भोग यानी शूद्र। तृष्णा यानी वैश्य। संकल्प यानी क्षत्रिय। और जब संकल्प पूरा हो जाए, तभी समर्पण की संभावना है। तब समर्पण यानी ब्राह्मण। जब तुम अपना सब कर लो, तभी तुम झुकोगे। उसी झुकने में असलियत होगी। जब तक तुम्हें लगता है मेरे किए हो जाएगा, तब तक तुम झुक नहीं सकते। तुम्हारा झुकना धोखे का होगा, झूठा होगा, मिथ्या होगा।

अपना सारा दौड़ना दौड़ लिए, अपना करना सब कर लिए और पाया कि नहीं, अंतिम चीज हाथ नहीं आती, नहीं आती, नहीं आती, चूकती चली जाती है। तब एक असहाय अवस्था में आदमी गिर पड़ता है। जब तुम घुटने टेककर प्रार्थना करते हो, तब असली प्रार्थना नहीं है। जब एक दिन ऐसा आता है कि तुम अचानक पाते हो कि घुटने टिके जा रहे हैं पृथ्वी पर। अपने टिका रहे हो ऐसा नहीं, झुक रहे हो ऐसा नहीं, झुके जा रहे हो। अब कोई और उपाय नहीं रहा। जिस दिन झुकना सहज फलित होता है, उस दिन समर्पण।

समर्पण यानी ब्राह्मण। समर्पण यानी ब्रह्म। जो मिटा, उसने ब्रह्म को जाना।

ये चारों पर्तें तुम्हारे भीतर हैं। यह तुम्हारे ऊपर है कि तुम किस पर ध्यान देते हो। ऐसा ही समझो कि जैसे तुम्हारे रेडियो में चार स्टेशन हैं। तुम कहां अपने रेडियो की कुंजी को लगा देते हो, किस स्टेशन पर रेडियो के कांटे को ठहरा देते हो, यह तुम पर निर्भर है।

ये चारों तुम्हारे भीतर हैं। देह तुम्हारे भीतर है। मन तुम्हारे भीतर है। आत्मा तुम्हारे भीतर। परमात्मा तुम्हारे भीतर।

अगर तुमने अपने ध्यान को देह पर लगा दिया, तो तुम शूद्र हो गए।

स्वभावत:, बच्चे सभी शूद्र होते हैं। क्योंकि बच्चों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वे देह से ज्यादा गहरे में जा सकेंगे। मगर के अगर शूद्र हों, तो अपमानजनक है। बच्चों के लिए स्वाभाविक है। अभी जिंदगी जानी नहीं, तो जो पहली पर्त है, उसी को पहचानते हैं। लेकिन का अगर शूद्र की तरह मर जाए, तो निंदायोग्य है। सब शूद्र की तरह पैदा होते हैं, लेकिन किसी को शूद्र की तरह मरने की आवश्यकता नहीं है।

अगर तुमने अपने रेडियो को वैश्य के स्टेशन पर लगा दिया; तुमने अपने ध्यान को वासना तृष्णा में लगा दिया, लोभ में लगा दिया, तो तुम वैश्य हो जाओगे। तुमने अगर अपने ध्यान को संकल्प पर लगा दिया, तो क्षत्रिय हो जाओगे। तुमने अपने ध्यान को अगर समर्पण में डुबा दिया, तो तुम ब्राह्मण हो जाओगे।

ध्यान कुंजी है। कुछ भी बनो, ध्यान कुंजी है। शूद्र के पास भी एक तरह का ध्यान है। उसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया। अब जो स्त्री दर्पण के सामने घंटों खड़ी रहती है बाल संवारती है; साड़ी संवारती है, पावडर लगाती है यह शूद्र है। ये जो दो तीन घंटे दर्पण के सामने गए, ये शूद्रता में गए। इसने सारा ध्यान शरीर पर लगा दिया है। यह राह पर चलती भी है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान है। यह दूसरों को भी देखती है, तो शरीर पर ही इसका ध्यान होगा। जब यह अपने शरीर को ही देखती है, तो दूसरे के शरीर को ही देखेगी। और कुछ नहीं देख पाएगी। यह अगर अपनी साड़ी को घंटों पहनने में रस लेती है, तो बाहर निकलेगी, तो इसको हर स्त्री की साड़ी दिखायी पड़ेगी और कुछ दिखायी नहीं पड़ेगा।

जो व्यक्ति बैठा बैठा सोचता है कि एक बड़ा मकान होता, एक बड़ी कार होती; बैंक में इतना धन होता क्या करूं? कैसे करूं? वह अपने ध्यान को वैश्य पर लगा रहा है। धीरे धीरे ध्यान वहीं ठहर जाएगा। और अक्सर ऐसा हो जाता है कि अगर तुम एक ही रेडियो में एक ही स्टेशन सदा सुनते हो, तो धीरे धीरे तुम्हारे रेडियो का कांटा उसी स्टेशन पर ठहर जाएगा, जड़ हो जाएगा। अगर तुम दूसरे स्टेशन को कभी सुने ही नहीं हो और आज अचानक सुनना भी चाहो, तो शायद पकड़ न सकोगे। क्योंकि हम जिस चीज का उपयोग करते हैं, वह जीवित रहती है। और जिसका उपयोग नहीं करते, वह मर जाती है।

इसलिए कभी कभी जब सुविधा बने शूद्र से छूटने की, तो छूट जाना। वैश्य से छूटने की, तो छूट जाना। जब सुविधा मिले, तो कम से कम ब्राह्मण दूर कम से कम थोड़ी देर को क्षत्रिय होना, संकल्प को जगाना। और कभी कभी मौके जब आ जाएं, चित्त प्रसन्न हो, प्रमुदित हो, प्रफुल्लित हो, तो कभी कभी क्षणभर को ब्राह्मण हो जाना। सब समर्पित कर देना। लेट जाना पृथ्वी पर चारों हाथ पैर फैलाकर, जैसे मिट्टी में मिल गए, एक हो गए। झुक जाना सूरज के सामने या वृक्षों के सामने। झुकना मूल्यवान है, कहां झुकते हो, इससे कुछ मतलब नहीं है। उसी झुकने में थोड़ी देर के लिए ब्रह्म का आविर्भाव होगा।

ऐसे धीरे धीरे, धीरे  धीरे अनुभूति बढ़ती चली जाए, तो हर व्यक्ति अंततः मरते  मरते ब्राह्मण हो जाता है।

जन्म तो शूद्र की तरह हुआ है, ध्यान रखना, मरते समय ब्राह्मण कम से कम हो जाना। मगर एकदम मत सोचना कि हो सकोगे।

कई लोग ऐसा सोचते हैं कि बस, आखिरी घड़ी में हो जाएंगे। जिसने जिंदगीभर अभ्यास नहीं किया, वह मरते वक्त आखिरी घड़ी में रेडियो टटोलेगा, स्टेशन नहीं लगेगा फिर! पता ही नहीं होगा कि कहा है! और मौत इतनी अचानक आती है कि सुविधा नहीं देती। पहले से खबर नहीं भेजती कि कल आने वाली हूं। अचानक आ जाती है। आयी कि आयी! कि तुम गए! एक क्षण नहीं लगता। उस घड़ी में तुम सोचो कि राम को याद कर लेंगे, तो तुम गलती में हो। तुमने अगर जिंदगीभर कुछ और याद किया है, तो उसकी ही याद आएगी।

इसलिए तैयारी करते रहो, साधते रहो। जब सुविधा मिल जाए, ब्राह्मण होने का मजा लो। उससे बडा कोई मजा नहीं है। वही आनंद की चरम सीमा है।

 एस धम्मो सनंतनो 

विचार शून्यता

विचार शून्यता

चेतना की पूरी अलग ही गुणवत्ता है जो विचार शून्यता से आती है: न ठीक, न गलत से, बस विचार शून्य की दशा। तुम बस देखते हो, तुम बस होशपूर्ण होते हो, लेकिन तुम सोचते नहीं। और यदि कोई विचार आता है... वे आते हैं, क्योंकि विचार तुम्हारे नहीं हैं, वे बस हवा में तैर रहे हैं। यहां चारों तरफ विचार तैर रहे हैं, विचारों का क्षेत्र तैयार हो गया है। ऐसे ही जैसे कि यहां हवा है, तुम्हारे चारों तरफ पर विचार हैं, और ये स्वतः घुसते चले जाते हैं। यह तभी रुकते हैं जब तुम अधिक से अधिक होश से भरते हो। इसमें कुछ ऐसा है : यदि तुम अधिक होश से भरते हो, विचार विलीन हो जाते हैं, वे पिघल जाते हैं, क्योंकि होश की ऊर्जा विचारों से अधिक बड़ी है। 
 
होश विचारों के लिए आग की तरह है। यह ऐसे ही है जैसे कि तुम घर में दीपक जलाओ और अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता, तुम प्रकाश को बंद कर दो--चारों तरफ से अंधेरा प्रवेश कर जाता है; बगैर एक मिनट लिए, एक क्षण भी लिए, वह वहां होता है। जब घर में प्रकाश जलता है, अंधेरा प्रवेश नहीं कर सकता। विचार अंधेरे की तरह होते हैं : वे तब ही प्रवेश करते हैं जब भीतर प्रकाश न हो। होश आग है: तुम अधिक होश से भरते हो, कम से कम विचार प्रवेश करते हैं। 
 
यदि तुम अपने होश से सच में अखंडित हो जाते हो, विचार तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं करते; तुम अभेद्य किले हो गए, कुछ भी प्रवेश नहीं कर सकता। ऐसा नहीं है कि तुम बंद हो गए, याद रखना--तुम पूरी तरह से खुले हो; परंतु तुम्हारी ऊर्जा एक किला बन जाती है। और जब कोई विचार तुम्हारे भीतर प्रवेश नहीं कर सकता, वे आएंगे और तुम्हारे पास से गुजर जाएंगे। तुम उन्हें आते देखोगे, और बस, जब वे तुम्हारे करीब आएंगे वे मुड़ जाएंगे। तब तुम किसी तरफ भी मुड़ सकते हो, तब तुम अगर नर्क में भी चले जाओ--तुम पर कुछ भी असर नहीं कर सकता। बुद्धत्व का यही अर्थ है।

कुम्भ में जाने वाले 😉सोचे

कुम्भ में जाने वाले 😉सोचे और जरूर पढ़े
सोमवती स्नान का पर्व था। क्षिप्रा घाट पर भारी भीड़ लग रही थी।
शिव पार्वती आकाश से गुजरे। पार्वती ने इतनी भीड़ का कारण पूछा - आशुतोष ने कहा - सोमवती पर्व पर क्षिप्रा स्नान करने वाले स्वर्ग जाते है। उसी लाभ के लिए यह स्नानार्थियों की भीड़ जमा है।
पार्वती का कौतूहल तो शान्त हो गया पर नया संदेह उपज पड़ा, इतनी भीड़ के लायक स्वर्ग में स्थान कहाँ है? फिर लाखों वर्षों से लाखों लाख लोग इस आधार पर स्वर्ग पहुँचते तो उनके लिए स्थान भी तो कहीं रहता?
छोटे से स्वर्ग में यह कैसे बनेगा? भगवती ने अपनानया सन्देह प्रकट किया और समाधान चाहा।
भगवान शिव बोले - शरीर को गीला करना एक बात है और मन की मलीनता धोने वाला स्नान जरूरी है। मन को धोने वाले ही स्वर्ग जाते हैं। वैसे लोग जो होंगे उन्हीं को स्वर्ग मिलेगा।
सन्देह घटा नहीं, बढ़ गया।
पार्वती बोलीं - यह कैसे पता चले कि किसने शरीर धोया किसने मन संजोया।
यह कार्य से जाना जाता है। शिवजी ने इस उत्तर से भी समाधान न होते देखकर प्रत्यक्ष उदाहरण से लक्ष्य समझाने का प्रयत्न किया।
मार्ग में शिव कुरूप कोढ़ी बनकर पढ़ रहे। पार्वती को और भी सुन्दर सजा दिया। दोनों बैठे थे। स्नानार्थियों की भीड़ उन्हें देखने के लिए रुकती। अनमेल स्थिति के बारे में पूछताछ करती।
पार्वती जी रटाया हुआ विवरण सुनाती रहतीं। यह कोढ़ी मेरा पति है। कुंभ स्नान की इच्छा से आए हैं। गरीबी के कारण इन्हें कंधे पर रखकर लाई हूँ। बहुत थक जाने के कारण थोड़े विराम के लिए हम लोग यहाँ बैठे हैं।
अधिकाँश दर्शकों की नीयत डिगती दिखती। वे सुन्दरी को प्रलोभन देते और पति को छोड़कर अपने साथ चलने की बात कहते।
पार्वती लज्जा से गढ़ गई। भला ऐसे भी लोग कुंभ स्नान को आते हैं क्या? निराशा देखते ही बनती थी।
संध्या हो चली। एक उदारचेता आए। विवरण सुना तो आँखों में आँसू भर लाए। सहायता का प्रस्ताव किया और कोढ़ी को कंधे पर लादकर क्षिप्रा तट तक पहुँचाया। जो सत्तू साथ में था उसमें से उन दोनों को भी खिलाया।
साथ ही सुन्दरी को बार-बार नमन करते हुए कहा - आप जैसी देवियां ही इस धरती की स्तम्भ हैं। धन्य हैं आप जो इस प्रकार अपना धर्म निभा रही हैं।
प्रयोजन पूरा हुआ। शिव पार्वती उठे और कैलाश की ओर चले गए। रास्ते में कहा - पार्वती इतनों में एक ही व्यक्ति ऐसा था, जिसने मन धोया और स्वर्ग का रास्ता बनाया। कुंभ स्नान का महात्म्य तो सही है पर उसके साथ मन भी धोने की शर्त लगी है।
पार्वती तो समझ गई कि कुम्भ महात्म्य सही होते हुए भी... क्यों लोग उसके पुण्य फल से वंचित रहते हैं?

राम चरित मानस की रचना

तुलसी दास जी ने जब राम चरित मानस की रचना की,तब उनसे किसी ने पूंछा कि ....
बाबा ! आप ने इसका नाम रामायण क्यों नहीं रखा ? क्योकि इसका नाम रामायण ही है, बस आगे पीछे नाम लगा देते है, वाल्मीकि रामायण,आध्यात्मिक रामायण,आपने राम चरित मानस ही क्यों नाम रखा?
बाबा गोस्वामी जी ने कहा :-
क्योकि रामायण और राम चरित मानस में एक बहुत बड़ा अंतर है । "रामायण" का अर्थ है राम का मंदिर, राम का घर, जब हम मंदिर जाते है तो एक समय पर जाना होता है, मंदिर जाने के लिए नहाना पडता है, जब मंदिर जाते है तो खाली हाथ नहीं जाते कुछ फूल, फल साथ लेकर जाना होता है । मंदिर जाने कि शर्त होती है,मंदिर साफ सुथरा होकर जाया जाता है ।
पर मानस अर्थात सरोवर, सरोवर में ऐसी कोई शर्त नहीं होती, समय की पाबंधी नहीं होती । कोई भी हो ,कैसा भी हो सरोवर में स्नान कर सकता है । और व्यक्ति जब मैला होता है, गन्दा होता है तभी सरोवर में स्नान करने जाता है । माँ की गोद में कभी भी कैसे भी बैठा जा सकता है ।
इसलिए जो शुद्ध हो चुके है वे रामायण में चले जाए और जो शुद्ध होना चाहते है वे राम चरित मानस में आ जाए......
राम कथा जीवन के
दोष मिटाती है ....
"रामचरित मानस एहिनामा, सुनत श्रवन पाइअ विश्रामा"
राम चरित मानस तुलसीदास जी ने जब किताब पर ये शब्द लिखे तो आड़े में रामचरितमानस ऐसा नहीं लिखा, खड़े में लिखा -
राम
चरित
मानस
किसी ने गोस्वामी जी से पूंछा
आपने खड़े में क्यों लिखा ....?
तो गोस्वामी जी कहते है ... "रामचरित मानस राम दर्शन की ,राम मिलन की सीढी है , जिस प्रकार हम घर में कलर कराते है तो एक लकड़ी की सीढी लगाते है , जिसे हमारे यहाँ नसेनी कहते है, जिसमे डंडे लगे होते है । गोस्वामी जी कहते है रामचरित मानस भी राम मिलन की सीढी है, जिसके प्रथम डंडे पर पैर रखते ही श्रीराम चन्द्र जी के दर्शन होने लगते है, अर्थात यदि कोई बाल काण्ड ही पढ़ ले, तो उसे राम जी का दर्शन हो जायेगा ।

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गाँव की एक बाला दूध बेचने के लिये रोजाना दूसरे गाँव जाती।
रास्ते में एक नदी पड़ती। नदी किनारे दूध का डिब्बा खोलती और उसमें से एक लोटा दूध निकालती। दूधके डिब्बे में एक लोटा पानी मिलाती और नदी पार के गाँव की ओर चल पड़ती दूध बेचने।
यह उसकी रोज की दिनचर्या थी।
नदी किनारे एक वृक्ष पर संत मलूकदास जी जप माला फेरते हुऐ इस अहीर बाला की गतिविधियों को रोज आश्चर्य से देखा करते।
एक दिन उनसे रहा नहीं गया और ऊपर से आवाज लगा ही दी। -- बेटी सुनो!
--हाँ! बाबा। बोलिये ना।
--बुरा न मानो तो तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ।
--पूछिये ना बाबा। आपकी बात भी कोई बुरा मानने की होती है क्या?
-बेटी! मैं रोज देखता हूँ। तुम यहाँ आती हो। दूध के डिब्बे में से एक लोटा दूध निकालती हो और डिब्बे में एक लोटा पानी मिला देती हो? क्यों करती हो तुम ऐसा?
लड़की ने नज़रें नीची कर ली।कहा--- बाबा! मैं जिस गाँव में दूध बेचने जाती हूँ ना..वहाँ मेरी सगाई पक्की हुई है। मेरे वो वहीं रहते हैं। जबसे सगाई हुई है मैं रोज एक लोटा दूध उन्हें लेजाकर देती हूँ। दूध कम न पड़े इसलिये एक लोटा पानी डिब्बे में मिला देती हूँ...
--पगली तू ये क्या कर रही है? कभी हिसाब भी लगाया है तूने? कितना दूध- पानी कर चुकी है अभी तक तू। अपने मंगेतर के लिये?
--लड़की नें नज़रें तनिक उठाते हुऐ उत्तर दिया-- बाबा! जब सारा जीवन ही उसे सौंपने का फैसला हो गया तो फिर हिसाब क्या लगाना? जितना दे सकी दिया..जितना दे सकूंगी देती रहूंगी।
मलूक दास जी के हाथ से माला छूट कर नदी में जा गिरी। उस बाला के पाँव पकड़ लिये उन्होंने---बेटी! तूने तो मेरी आँखें ही खोल दी। माला का हिसाब लगाते लगाते मैंने तो जप का मतलब ही नहीं समझा। जब सारा जीवन ही उसे सौंप दिया तो क्या हिसाब रखना की कितनी माला फेर ली?

बहुत छोटी सी कहानी



मैं एक गृह प्रवेश की पूजा में गया। पंडित जी पूजा करा रहे थे।
पंडित जी ने सबको हवन में शामिल होने के लिए बुलाया। सबके सामने हवन सामग्री रख दी गई। पंडित जी मंत्र पढ़ते और कहते, “स्वाहा।”
लोग चुटकियों से हवन सामग्री लेकर अग्नि में डाल देते। गृह मालिक को स्वाहा कहते ही अग्नि में घी डालने की ज़िम्मेदीरी सौंपी गई।
हर व्यक्ति थोड़ी सामग्री डालता, इस आशंका में कि कहीं हवन खत्म होने से पहले ही सामग्री खत्म न हो जाए। गृह मालिक भी बूंद-बूंद घी डाल रहे थे। उनके मन में भी डर था कि घी खत्म न हो जाए।
मंत्रोच्चार चलता रहा, स्वाहा होता रहा और पूजा पूरी हो गई।
सबके पास बहुत सी हवन सामग्री बची रह गई। घी तो आधा से भी कम इस्तेमाल हुआ था।
हवन पूरा होने के बाद पंडित जी ने कहा कि आप लोगों के पास जितनी सामग्री बची है, उसे अग्नि में डाल दें। गृह स्वामी से भी उन्होंने कहा कि आप इस घी को भी कुंड में डाल दें।
एक साथ बहुत सी हवन सामग्री अग्नि में डाल दी गई। सारा घी भी अग्नि के हवाले कर दिया गया। पूरा घर धुंए से भर गया। वहां बैठना मुश्किल हो गया।
एक-एक कर सभी कमरे से बाहर निकल गए।
अब जब तक सब कुछ जल नहीं जाता, कमरे में जाना संभव नहीं था।काफी देर तक इंतज़ार करना पडा, सब कुछ स्वाहा होने के इंतज़ार में।
मेरी कहानी यहीं रुक जाती है।
उस पूजा में मौजूद हर व्यक्ति जानता था कि जितनी हवन सामग्री उसके पास है, उसे हवन कुंड में ही डालना है। पर सबने उसे बचाए रखा। सबने बचाए रखा कि आख़िर में सामग्री काम आएगी।
ऐसा ही हम करते हैं। यही हमारी फितरत है। हम अंत के लिए बहुत कुछ बचाए रखते हैं।
ज़िंदगी की पूजा खत्म हो जाती है और हवन सामग्री बची रह जाती है। हम बचाने में इतने खो जाते हैं कि जब सब कुछ होना हवन कुंड के हवाले है, उसे बचा कर क्या करना। बाद में तो वो सिर्फ धुंआ ही देगा।
संसार हवन कुंड है और जीवन पूजा। एक दिन सब कुछ हवन कुंड में समाहित होना है। अच्छी पूजा वही है, जिसमें हवन सामग्री का सही अनुपात में इस्तेमाल हो l

हवन

🕉 हवन 🕉
एक वेबसाइट रिपोर्ट के अनुसार फ़्रांस के ट्रेले नामक वैज्ञानिक ने हवन पर रिसर्च की। जिसमे उन्हें पता चला की हवन मुख्यतः आम की लकड़ी पर किया जाता है। जब आम की लकड़ी जलती है तो फ़ॉर्मिक एल्डिहाइड नमक गैस उत्पन्न होती है जो की खतरनाक बैक्टीरिया और जीवाणुओ को मारती  है तथा वातावरण को शुद्द करती है। इस रिसर्च के बाद ही वैज्ञानिकों को इस गैस और इसे बनाने का तरीका पता चला। गुड़ को जलने पर भी ये गैस उत्पन्न होती है।

(२) टौटीक नामक वैज्ञानिक ने हवन पर की गयी अपनी रिसर्च में ये पाया की यदि आधे घंटे हवन में बैठा जाये अथवा हवन के धुएं से शरीर का सम्पर्क हो तो टाइफाइड जैसे खतरनाक रोग फ़ैलाने वाले जीवाणु भी मर जाते हैं और शरीर शुद्ध हो जाता है।
(३) हवन की मत्ता देखते हुए राष्ट्रीय वनस्पति अनुसन्धान संस्थान लखनऊ के वैज्ञानिकों ने भी इस पर एक रिसर्च करी की क्या वाकई हवन से वातावरण शुद्द होता है और जीवाणु नाश होता है अथवा नही. उन्होंने ग्रंथो. में वर्णित हवन सामग्री जुटाई और जलने पर पाया की ये विषाणु नाश करती है। फिर उन्होंने विभिन्न प्रकार के धुएं पर भी काम किया और देखा की सिर्फ आम की लकड़ी १ किलो जलने से हवा में मौजूद विषाणु बहुत कम नहीं हुए पर जैसे ही उसके ऊपर आधा किलो हवन सामग्री डाल कर जलायी गयी एक घंटे के भीतर ही कक्ष में मौजूद बॅक्टेरिया का स्तर ९४ % कम हो गया। यही नही. उन्होंने आगे भी कक्ष की हवा में मौजुद जीवाणुओ का परीक्षण किया और पाया की कक्ष के दरवाज़े खोले जाने और सारा धुआं निकल जाने के २४ घंटे बाद भी जीवाणुओ का स्तर सामान्य से ९६ प्रतिशत कम था। बार बार परीक्षण करने पर ज्ञात हुआ की इस एक बार के धुएं का असर एक माह तक रहा और उस कक्ष की वायु में विषाणु स्तर 30 दिन बाद भी सामान्य से बहुत कम था। यह रिपोर्ट
एथ्नोफार्माकोलोजी के शोध पत्र (resarch journal of Ethnopharmacology 2007) में भी दिसंबर २००७ में छप चुकी है।
रिपोर्ट में लिखा गया की हवन के द्वारा न सिर्फ मनुष्य बल्कि वनस्पतियों फसलों को नुकसान पहुचाने वाले बैक्टीरिया का नाश होता है। जिससे फसलों में रासायनिक खाद का प्रयोग कम हो सकता है।

क्या हो हवन की समिधा (जलने वाली लकड़ी)
समिधा के रूप में आम की लकड़ी सर्वमान्य है परन्तु अन्य समिधाएँ भी विभिन्न कार्यों हेतु प्रयुक्त होती हैं। 

सूर्य की समिधा मदार की, 
चन्द्रमा की पलाश की, 
मङ्गल की खैर की,
बुध की चिड़चिडा की, 
बृहस्पति की पीपल की, 
शुक्र की गूलर की, 
शनि की शमी की, 
राहु दूर्वा की और
केतु की कुशा की समिधा कही गई है।

मदार की समिधा रोग को नाश करती है,
पलाश की सब कार्य सिद्ध करने वाली,
पीपल की प्रजा (सन्तति) काम कराने वाली, 
गूलर की स्वर्ग देने वाली, 
शमी की पाप नाश करने वाली, 
दूर्वा की दीर्घायु देने वाली और 
कुशा की समिधा सभी मनोरथ को सिद्ध करने वाली होती है।
हव्य (आहुति देने योग्य द्रव्यों) के प्रकार प्रत्येक ऋतु में आकाश में भिन्न-भिन्न प्रकार के वायुमण्डल रहते हैं। सर्दी, गर्मी,
नमी, वायु का भारीपन, हलकापन, धूल, धुँआ, बर्फ आदि का भरा होना। विभिन्न प्रकार के कीटणुओं की उत्पत्ति, वृद्धि एवं
समाप्ति का क्रम चलता रहता है। इसलिए कई बार वायुमण्डल स्वास्थ्यकर होता है। कई बार अस्वास्थ्यकर हो जाता है। इस
प्रकार की विकृतियों को दूर करने और अनुकूल वातावरण उत्पन्न करने के लिए हवन में ऐसी औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं, जो इस उद्देश्य को भली प्रकार पूरा कर सकती हैं।

होम द्रव्य

होम-द्रव्य अथवा हवन सामग्री वह जल सकने वाला पदार्थ है जिसे यज्ञ (हवन/होम) की अग्नि में मन्त्रों के साथ डाला जाता है।
(१) सुगन्धित : केशर, अगर, तगर, चन्दन, इलायची, जायफल, जावित्री, छड़ीला, कपूर, कचरी, बालछड़, पानड़ी आदि
(२) पुष्टिकारक : घृत, गुग्गुल ,सूखे फल, जौ, तिल, चावल, शहद, नारियल, आदि
(३) मिष्ट - शक्कर, छूहारा, दाख आदि
(४) रोग नाशक -गिलोय, जायफल, सोमवल्ली, ब्राह्मी, तुलसी, अगर, तगर, तिल, इंद्रा, जव, आमला, मालकांगनी, हरताल, तेजपत्र, प्रियंगु, केसर, सफ़ेद चन्दन, जटामांसी, आदि

उपरोक्त चारों प्रकार की वस्तुएँ हवन में प्रयोग होनी चाहिए। अन्नों के हवन से मेघ-मालाएँ अधिक अन्न उपजाने वाली वर्षा करती हैं। सुगन्धित द्रव्यों से विचारों शुद्ध होते हैं, मिष्ट पदार्थ स्वास्थ्य को पुष्ट एवं शरीर को आरोग्य प्रदान करते हैं,
इसलिए चारों प्रकार के पदार्थों को समान महत्व दिया जाना चाहिए। यदि अन्य वस्तुएँ उपलब्ध न हों, तो जो मिले उसी
से अथवा केवल तिल, जौ, चावल से भी काम चल सकता है।

सामान्य हवन सामग्री

तिल, जौं, सफेद चन्दन का चूरा , अगर, तगर , गुग्गुल, जायफल, दालचीनी, तालीसपत्र, पानड़ी, लौंग, बड़ी इलायची, गोला, छुहारे, नागर, मौथा, इन्द्र जौ, कपूर कचरी, आँवला,गिलोय, जायफल, ब्राह्मी ।

Maha Mrityunjaya Mantra - महा मृत्युंजय मंत्र


It's mentioned in  Padampuran "पदम् पुराण" that Mahamrituanjaya mantra is composed in hymn form by Maharishi Markanday.

In the Rig-Veda, 4/52/12 the mantra has been recorded as:

ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥

Om Tryambakam Yajaamahe
Sugandhim Pussttivardhanam
Urvaarukamiva Bandhanaan
Mrtyormukssiiya Maamrtaat ||




This mantra dedicated to lord Shiva as Mrityunjaya is found in the Rig Veda.  It is called the Maha Mrityunjaya mantra, the Great Death-Conquering mantra. It is a mantra that has many names and forms. It is called the Rudra mantra, referring to the furious aspect of Shiva; the Tryambakam mantra, alluding to Shiva's three eyes; and its is sometimes known as the Mrita-Sanjivini mantra because it is a component of the "life-restoring" practice given to the primordial sage Shukra after he had completed an exhausting period of austerity, but Amrit Sanjivani mantra is different from maha Mrityunjaya mantra, it is a combination of mrityunjaya and gayatri.

The Maha Mrityunjaya mantra is hailed by the sages as the heart of the Veda. Along with the Gayatri mantra it holds the highest place among the many mantras used for contemplation and meditation.


ॐ aum         = is a sacred/mystical syllable in Sanatan Dharma or Indian religions, i.e. Hinduism, Jainism, and Buddhism
tryambakam =  the three-eyed one (accusative case)
yajamahe      = We worship, adore, honor, revere
sugandhim     = sweet smelling, fragrant (accusative case)
pushti            = A well-nourished condition, thriving, prosperous, fullness of life
vardhanam    = One who nourishes, strengthens, causes to increase (in health, wealth, well-being); who  
                        gladdens, exhilarates, and restores health; a good gardener
urvarukam    =  'urva' means "vishal" or big and powerful or deadly. 'arukam' means 'disease'. Thus
                         urvarukam means deadly and overpowering diseases.
iva               = like, just as
bandhanān   = "from captivity" {i.e. from the stem of the cucumber} (of the gourd); (the ending is actually
                        long a then -d which changes to n/anusvara because of sandhi)
                        bandhanān means bound down. Thus read with urvārukam iva, it means 'I am bound down 
                        just as by deadly and overpowering diseases'.
mrityor         = From death
mukshīya      = Free, liberate
ma                = me
amritat           = [with] immortality, emancipation

108 names of Goddess Durga


Maa Durga is the personification of the divine force of the super power. The Durga means ‘the invincible’, so the Durga is regarded as the ever victorious warrior of the Gods lineage. Durga is the representation of courage, strength, ethics and protection. She is the destroyer of sin and evil and the savior of morality and ethics. Goddess Durga is a form of Divine Power, the Shakti. Durga is the confluence of the power, beauty and intelligence of Maha lakshmi, Maha Saraswati and Maha Kali. So, Durga is regarded as ‘the ultimate deity’. Regarded as the savior of needy and the destroyer of destructors, she is the mother of the entire universe as well as the slayer of evils. She is known by 108 different names according to quality she possesses. It is believed that Maa Durga gets pleased if, these names (Durga Shatnam Strotam) are chanted with devotion. Read on to know the 108 names of the Goddess along with their meaning.

Meaning Of 108 Durga Names 

Sati - One who got burned alive
Saadhvi - The Sanguine
Bhavaprita - One who is loved by the universe
Bhavaani - The abode of the universe
Bhavamochani - The absolver of the universe
Aarya - Goddess
Durga - The Invincible
Jaya - The Victorious
Aadya - The Initial reality
Trinetra - One who has three-eyes
Shooldharini - One who holds a monodent
Pinaakadharini - One who holds the trident of Shiva
Chitra - The Picturesque
Chandaghanta - One who has mighty bells
Mahatapa - With severe penance
Manah - Mind
Buddhi - Intelligence
Ahankaara - One with Pride
Chittarupa - One who is in thought-state
Chita - Death-bed
Chiti - The thinking mind
Sarvamantramayi - One who possess all the instruments of thought
Satta - One who is above all
Satyanandasvarupini - Form of Eternal bliss
Ananta - One who is Infinite or beyond measure
Bhaavini - The Beautiful Woman
Bhaavya - Represents Future
Bhavya - With Magnificence
Abhavya - Improper or fear-causing
Sadagati - Always in motion, bestowing Moksha (salvation)
Shaambhavi - Consort of Shambhu
Devamata - Mother Goddess
Chinta - Tension
Ratnapriya - Adorned or loved by jewels
Sarvavidya - Knowledgeable
Dakshakanya - Daughter of Daksha
Dakshayajñavinaashini - Interrupter of the sacrifice of Daksha
Aparna - One who doesnt eat even leaves while fasting
Anekavarna - One who has many complexions
Paatala - Red in color
Paatalavati - Wearing red-color attire
Pattaambaraparidhaana - Wearing a dress made of leather
Kalamanjiiraranjini - Wearing a musical anklet
Ameyaa - One who is beyond measure
Vikrama - Violent
Krrooraa - Brutal (on demons)
Sundari - The Gorgeous
Sursundari - Extremely Beautiful
Vandurga - Goddess of forests
Maatangi - Goddess of Matanga
Matangamunipujita - Worshipped by Sage Matanga
Braahmi - Power of God Brahma
Maaheshvari - Power of Lord Mahesha (Shiva)
Aeindri - Power of God Indra
Kaumaari - The adolescent
Vaishnavi - The invincible
Chaamunda - Slayer of Chanda and Munda(demons)
Vaarahi - One who rides on Varaah
Lakshmi - Goddess of Wealth
Purushaakriti - One who takes the form of a man
Vimalauttkarshini - One who provides joy
Gyaana - Full of Knowledge
Kriya - Nitya- The eternal one
Buddhida - The bestower of wisdom
Bahula - One who is in various forms
Bahulaprema - One who is loved by all
Sarvavahanavahana - One who rides all vehicles
NishumbhaShumbhaHanani - Slayer of the demon-brothers Shumbha Nishumbha
MahishasuraMardini - Slayer of the bull-demon Mahishaasura
MadhuKaitabhaHantri - Slayer of the demon-duo Madhu and Kaitabha
ChandaMundaVinashini - Destroyer of the ferocious asuras Chanda and Munda
Sarvasuravinasha - Destroyer of all demons
Sarvadaanavaghaatini - Possessing the power to kill all the demons
Sarvashaastramayi - One who is deft in all theories
Satya - The truth
Sarvaastradhaarini - Possessor of all the missile weapons
Anekashastrahasta - Possessor of many hand weapons
AnekastraDhaarini - Possessor of many missile weapons
Komaari - The beautiful adolescent
Ekakanya - The girl child
Kaishori - The adolescent
Yuvati - The Woman
Yati - Ascetic, one who renounces the world
Apraudha - One who never gets old
Praudha - One who is old
Vriddhamaata - The old mother (loosely)
Balaprada - The bestower of strength
Mahodari - One who has huge belly which stores the universe
Muktakesha - One who has open tresses
Ghorarupa - Having a fierce outlook
Mahaabala - Having immense strength
Agnijwaala - One who is poignant like fire
Raudramukhi - One who has a fierce face like destroyer Rudra
Kaalaratri - Goddess who is black like night
Tapasvini - one who is engaged in penance
Narayani - The destructive aspect of Lord Narayana (Brahma)
Bhadrakaali - Fierce form of Kali
Vishnumaya - Spell of Lord Vishnu
Jalodari - Abode of the ethereal universe
Shivadooti - Ambassador of Lord Shiva
Karaali - The Violent
Ananta - The Infinite
Parameshvari - The Ultimate Goddess
Katyayani - One who is worshipped by sage Katyanan
Savitri - Daughter of the Sun God Savitr
Pratyaksha - One who is real
Brahmavaadini - One who is present everywhere

Reverence for life – The Krishna way



The respect for life was elaborated by the German philosopher Albert Schweitzer wherein he remarked in criticism on the Indian religion. He said that the religion of this country is life negative. This remark is correct to a large extent, if Krishna is left out. But it is utterly wrong in the context of Krishna. If Schweitzer had tried to understand Krishna he would never have said so.



When we will see to Lord Buddha or Lord Mahavir or Jesus we will feel a sadness or nothingness in them. Buddha and Mahavira renounce happiness, Krishna does not renounce it. Krishna accepts that which is. He does not find happiness even worth renouncing, let alone indulging. He does not find happiness even worth renouncing. He has no desire whatsoever to make even a slight change in life as it is; he accepts it totally.

But it was unfortunate that we did not allow Krishna to inuence our life in a broad way. He remains a lonely dancing island in the vast ocean of sorrow and misery that is our life. Or, we can say he is a small oasis of joyous dancing and celebration in the huge desert of sadness and negativity, of suppression and condemnation that we really are. Krishna could not inuence the whole spectrum of our life, and for this we are alone to blame. Krishna is not in the least responsible for it. We were not that worthy, that deserving, to have him, to imbibe him, to absorb him.

Up to now, man’s mind has thought of and looked at life in fragments – and thought dialectically.The religious man denies the body and accepts the soul. And what is worse, he creates a conict, a dichotomy between the body and spirit. He denies this world, he accepts the other world, and thus creates a state of hostility between the two. Naturally our life is going to be sad and miserable if we deny the body, because all our life’s juice – its health and vitality, its sensitivities and beauty, all its music – has its source in the body. So a religion that denies and denounces the body is bound to be anemic and ill, it has to be lackluster. Such a religion is going to be as pale and lifeless as a dry leaf fallen from a tree. And the people who follow such a religion, who allow themselves to be inuenced and conditioned by it, will be as anemic and prone to death as these leaves are.

Krishna is utterly incomparable, he is so unique. Firstly, his uniqueness lies in the fact that although Krishna happened in the ancient past he belongs to the future, is really of the future. Man has yet to grow to that height where he can be a contemporary of Krishna’s. He is still beyond man’s understanding; he continues to puzzle and battle us. Only in some future time will we be able to understand him and appreciate his virtues. And there are good reasons for it.

The most important reason is that Krishna is the only one in our whole history who reached the absolute height and depth of religion, and yet he is not at all serious and sad, not in tears. By and large, the chief characteristic of a religious person has been that he is somber, serious and sad-looking – like one vanquished in the battle of life, like a renegade from life. In the long line of such sages it is Krishna alone who comes dancing, singing and laughing.

Religions of the past were all life-denying and masochistic, extolling sorrow and suffering as great virtues. If you set aside Krishna’s vision of religion, then every religion of the past presented a sad and sorrowful face. A laughing religion, a religion that accepts life in its totality is yet to be born. And it is good that the old religions are dead, along with them, that the old God, the God of our old concepts is dead too.

What does Krishna really tell Arjuna? When he says, "Leave everything and come to me," he means to say that Arjuna should set aside everything and go to the feet of life itself, should accept life as it is.

A fakir has said in his prayer, "O Lord, I accept you, but not your world." In fact, every fakir says, "O Lord, I accept you, but not your world." This is opposite to the position taken by an atheist. The atheist says, "I accept your world, not you." Thus theists and atheists are two sides of the same coin.

Krishna's theism is quite unique. In fact, only Krishna is a theist: he accepts what is. He says to God, "I accept you and your world too," and this acceptance is so complete, so profound that it is difficult to know where the world ends and God begins. The world is really the extended hand of God, and God is the innermost being hidden in the world. The difference between the world and God is no more than this.

Krishna accepts the whole. It is important to understand that Krishna does not give up anything, neither pain nor happiness. He does not renounce that which is. With him the question of renunciation does not arise.

If we understand rightly we will see that the individual, the ego, the I begins with giving up, with renunciation. As soon as we renounce something I-ness into being. There is no way for me, for the ego to be if we don't give up anything...........


Gotra System..गोत्र क्या है

Why should only Sons carry the Gotra of their father, why can’t daughters? How does the Gotra of a daughter change just because she marries a person belonging to a different Gotra? What is the necessity of maintaining only the man’s ancestry, why not maintain that of women too? This was the question that was puzzling me about this Gotra system till recently, until I found out the scientific reasoning behind the Gotra system by chance while studying a puzzle in modern Genetics for which the biologists are trying to find an answer!



The Hindu Gotra System – Male Lineage Identification

The Gotra is a system which associates a person with his most ancient or root ancestor in an unbroken male lineage. For instance if a person says that he belongs to the Bharadwaja Gotra then it means that he traces back his male ancestry to the ancient Rishi (Saint or Seer) Bharadwaja. So Gotra refers to the Root Person in a person’s male lineage.
The Gotra system is practiced amongst most Hindus. See here for a List of Hindu Gotras practiced by different sections of the Hindu Society
Brahmins identify their male lineage by considering themselves to be the descendants of the 8 great Rishis ie Saptarshis (The Seven Sacred Saints) + Bharadwaja Rishi. So the list of root Brahmin Gotras is as follows
  • Angirasa
  • Atri
  • Gautam
  • Kashyapa
  • Bhrigu
  • Vasistha
  • Kutsa
  • Bharadwaja
These 8 Rishis are called Gotrakarin meaning roots of Gotras. All other Brahmin Gotras evolved from one of the above Gotras. What this means is that the descendants of these Rishis over time started their own Gotras. The total number of established Gotras today is 49. However each of them finally trace back to one of the root Gotrakarin Rishi.
The word Gotra is formed from the two Sanskrit words Gau (meaning Cow) and Trahi (meaning Shed).
Note that the English word Cow is a derived word of the Sanskrit word Gau with the same meaning Gau.
So Gotra means Cowshed, where in the context is that Gotra is like the Cowshed protecting a particular male lineage. Cows are extremely important sacred animals to Hindus and there were a large number of best breeds of Cows that ancient Hindus reared and worshipped, and hence the name Gotra referring to the system of maintaining individual male lineages seems more appropriate.

A Girl and a Boy belonging to the same Gotra cannot marry!

This is the most important and the only rule in the Gotra system is I may say so. Yes, a Bride and a Bridegroom belonging to the same Gotra are considered to be siblings and hence it is prohibited for them to marry even if they belong to distant families. The reason given was since they belonged to the same ancestor, it will be like a brother marrying a sister which is known to cause genetic disorders in their offspring.
As I can see now, probably the prevention of marriages within the same Gotra was the only reason for the Gotra system to be created.
But again I used to think, what a crap, how can a boy and a girl belonging to two different families who haven’t met for centuries be considered as siblings?
Only until I was able to correlate a puzzle in modern Genetics to the Gotra system.
And now to the Science behind the Gotra System, but before that let us just check out one more additional rule related to marriages in the Gotra System.

Pravaras and the Gotras

Pravara is a list of most excellent Rishis in a Gotra lineage. As we saw earlier, some of the descendants of the most ancient Gotras started their own Gotras, however they maintained a list of Pravaras while doing so and attached the list of their most excellent Ancestors with this derived Gotras.
For instance the Vatsa Gotra has BhargavaChyavanaJamadagnya , Apnavana as their Pravaras. What this means is that Vatsa Gotra has in its lineage all these Gotras and traces back its root to Bhrigu Rishi in the list of Gotrakarins.
The idea behind this Pravara system is probably to ensure that the derived Gotras still maintain track of their root Gotras, and this in turn is used to ensure that Bride and Bridegroom from no two derived Gotras coming from the same root Gotra marry each other. Every Gotra which is a derived Gotra maintains a list of Pravaras attached to it.
This is because, the essence of the Gotra system is finally to prevent marriages within the same Gotra. Now consider two derived Gotras which came from the same Gotra, then it might happen that over time people might forget that both these Gotras came from the same root Gotra, and may allow marriages within these Gotras since their names are different! To prevent this, the derived Gotras maintained a list of Pravaras (which were the prominent junctions where the derived Gotras got created), and the additional rule in the Gotra system is that, even if the Bride and Bridegroom belong to different Gotras, they still cannot get married even if just one of their Gotra Pravara matches.
This makes sense as this prevents marriages between derived Gotras which belong to the same root Gotra. This reminds me of a similar logic in the modern Object Oriented Programming in Software Systems.
Derived Classes
Consider a Class B which is derived from Class A, and another Class C which is also derived from Class B. Now Consider another Class D which is derived from both Class B and Class C (multiple inheritance like in C++). If we look at the immediate ancestry of Class D, then it appears that Class B and Class Care the parents of Class D. But if you look at the ancestors of Class B and Class C, then they are the Children of Class A. Now if we replace the classes A, B and C with Gotras, then we can see that even if two Gotras B and C are different Gotras, if they share the same parent Gotra A (enlisted in the form of Pravaras), then they will become siblings, and hence the marriage between two different Gotras sharing the same Pravara is not allowed.
But again the question remained – what is the basis to prevent marriages within the same Gotras even after thousands of years later the roots separated? How can hundreds of generations later they can still be considered to be the children of same parents just because they belong to same Gotra (male lineage) or to different Gotras sharing the same Pravara (again the male lineage)?
Now to the Science behind the Gotra System, but before that let us refresh a bit of our knowledge about Genetics.
-Chromosomes and Genes
Humans have 23 pairs of Chromosomes and in each pair one Chromosome comes from the father and the other comes from the mother. So in all we have 46 Chromosomes in every cell, of which 23 come from the mother and 23 from the father.
Of these 23 pairs, there is one pair called the Sex Chromosomes which decide the gender of the person. During conception, if the resultant cell has XX sex chromosomes then the child will be a girl and if it is XY then the child will be a boy. X chromosome decides the female attributes of a person and Y Chromosome decides the male attributes of a person.
When the initial embryonic cell has XY chromosome, the female attributes get suppressed by the genes in the Y Chromosome and the embryo develops into a male child. Since only men have Y Chromosomes, son always gets his Y Chromosome from his father and the X Chromosome from his mother. On the other hand daughters always get their X Chromosomes, one each from both father and mother.
So the Y Chromosome is always preserved throughout a male lineage (Father – Son  -  Grandson etc) because a Son always gets it from his father, while the X Chromosome is not preserved in the female lineage (Mother, Daughter, Grand Daughter etc) because it comes from both father and mother.
A mother will pass either her mother’s X Chromosome to her Children or her father’s X Chromosome to her children or a combination of both because of both her X Chromosomes getting mixed (called as Crossover). On the other hand, a Son always gets his father’s Y Chromosome and that too almost intact without any changes because there is no corresponding another Y chromosome in his cells to do any mixing as his combination is XY, while that of females is XX which hence allows for mixing as both are X Chromosomes.

-Y Chromosome and Vedic Gotra System

By now you might have got a clue about the relation between Y Chromosome and the Hindu Vedic Gotra System 
Y Chromosome is the only Chromosome which gets passed down only between the men in a lineage. Women never get this Y Chromosome in their body. And hence Y Chromosome plays a crucial role in modern genetics in identifying the Genealogy ie male ancestry of a person. And the Gotra system was designed to track down the root Y Chromosome of a person quite easily. If a person belongs to Angirasa Gotra then it means that his Y Chromosome came all the way down over thousands of years of timespan from the Rishi Angirasa! And if a person belongs to a Gotra (say Bharadwaja) with Pravaras (Angirasa, Bhaarhaspatya, Bharadwaja), then it means that the person’s Y Chromosome came all the way down from Angirasa to Bhaarhaspatya to Bharadwaja to the person.
This also makes it clear why females are said to belong to the Gotra of their husbands after marriage. That is because women do not carry Y Chromosome, and their Sons will carry the Y Chromosome of the Father and hence the Gotra of a woman is said to be that of her husband after marriage. Pretty neat isn’t it?
All iz well so far, we now know the science behind the Gotra System. The ancient vedic Rishis hence very well knew the existence of the Y Chromosome and the paternal genetic material that was passed almost intact from father to Son, and hence created the Gotra system to identify their male lineages.Lord Buddha for instance belonged to Gautama Gotra which means that Buddha was a direct descendant of Rishi Gautama.
But then what is the reason to prevent marriages between individuals belonging to the same Gotra? 
Before that lets let's understand a bit more about the Y Chromosome.

Weakness of Y Chromosome

The Y Chromosome is the only Chromosome which does not have a similar pair in the human body. The pair of the Y Chromosome in humans is X Chromosome which is significantly different from Y Chromosome. Even the size of the Y Chromosome is just about one third the size of the X Chromosome. In other words throughout evolution the size of the Y Chromosome has been decreasing and it has lost most of its genes and has been reduced to its current size. Scientists are debating whether Y Chromosome will be able to survive for more than a few million years into the future or whether it will gradually vanish, and if it does so whether it will cause males to become extinct! Obviously because Y Chromosome is the one which makes a person male or a man. And if it becomes extinct, Biologists are not sure whether any other Chromosome in our body will be able to completely take over its functionality or not.
And the reason for all this is that unlike other Chromosomes, there is no way for Y Chromosome to repair itself by doing cross over with its Chromosomal pair. All other Chromosomes come in similar pairs and when there the DNA of one Chromosome gets damaged the cell can repair it by copying over the DNA from the other Chromosome in that pair as both the Chromosomes in all other pairs are almost identical in nature. This copying (or crossing over as it is called) also allows different combinations of mix and matches to happen between the genes of mother and father and allows the best of the matches to survive and hence make the Chromosomes stronger as they evolve in successive generations. Even X Chromosomes in female undergo this mix and match since there are two X Chromosomes in women.
However Y Chromosomes do not have any corresponding equivalent Chromosome in its pair. It can exist only in a XY Combination and X cannot mix and match with Y except for a small 5% of X which matches with Y, while the remaining 95% of Y Chromosome which is crucial in the development of a male have absolutely no match at all!. It is this 95% of the Y Chromosome which is completely responsible in humans for creating a male or a man.
But at the same time, Y Chromosome has to depend on itself to repair any of its injuries and for that it has created duplicate copies of its genes within itself. However this does not stop DNA damages in Y Chromosome which escape its local repair process from being propagated into the offspring males. This causes Y Chromosomes to accumulate more and more defects over a prolonged period of evolution and scientists believe that this is what is causing the Y Chromosome to keep losing its weight continuously.
As discussed earlier other Chromosomes do not face this issue because they have corresponding pairs from both the parents and the DNA damage could be easily corrected most of the time by the mix and match process that takes place between the two Chromosomes in a pair. This Chromosomal crossover process eliminates damaged genes and is one of the key processes in evolution of life.
So to summarize, Y Chromosome which is crucial for the creation and evolution of males has a fundamental weakness which is denying it participation in the normal process of evolution via Chromosomal mix and match to create better versions in every successive generation, and this weakness MAY lead to the extinction of Y Chromosome altogether over the next few million years, and if that happens scientists are not sure whether that would cause males to become extinct or not. And that is because Scientists are not sure whether any other Chromosome in the 23 pairs will be able to take over the role of the Y Chromosome or not. Is there is an specific end date for Y Chromosome sometime in the future?
On the other hand, it is not necessary that humanity will not be able to survive if males become extinct. Note that females do not need the Y Chromosome, and since all females have X Chromosomes, it would be still possible to create a mechanism where X Chromosomes from different females are used to create offspring, say like injecting the nuclei from the egg of one female into the egg of another female to fertilize it and that would grow into a girl child. So yes, that would be a humanity where only females exist.
Now I understand why Hinduism and its Vedic core regard Mother Goddess or female divinity to be more powerful than all male divinity put together 

Gotra System – Attempt to protect  Y Chromosome from becoming extinct ?

The Vedic Rishis had observed the degeneration of the Y Chromosome and they wanted to maintain as many individual healthy unique Y Chromosome lineages as possible. That would give a fair chance for males to continue to exist because Y Chromosomes get passed on over generations with almost negligible change in their genetic combinations, as they do not take part in mix and match with other Chromosome.
So if the Rishis could devise a mechanism where in a given Y Chromosome had very little chance of adding more genetic defects in it, then they could probably succeed in either slowing down further degeneration of the Y Chromosome or even probably completely stop any further degeneration of the Y Chromosome.
And the only way to stop that was to ensure that the 5% of the Y Chromosome which can be mixed and crossed over with its X counterpart be protected so that the remaining 95% which does not take part in the mix and match process (which self heals by having duplicate copies of its genes) stays healthy.
Now we know even in modern Genetics that marriages between cousins will increase the risk of causing genetic disorders. That is because, say suppose there is a recessive dangerous gene in one person. What this means is that say a person is carrying a dangerous abnormality causing gene in one of his chromosome, but whose effect has been hidden in that person (or is not being expressed) because the corresponding gene in the pairing Chromosome is stronger and hence is preventing this abnormality causing gene from activating.
Now there are fair chances that his offsprings will be carriers of these genes throughout successive generations. As long as they keep marrying outside his genetic imprint, there is a fair chance that the defective gene will remain inactive since others outside this person’s lineage most probably do not have that defective gene. Now if after 5-10 generations down the line say one of his descendants marries some other descendant who may be really far away cousins. But then there is a possibility that both of them are still carrying the defective gene, and in that case their children will definitely have the defective gene express itself and cause the genetic abnormality in them as both the Chromosomes in the pair have the defective genes. Hence, the marriages between cousins always have a chance of causing an otherwise recessive, defective genes to express themselves resulting in children with genetic abnormalities.
So if the Vedic Rishis had allowed marriages within the same Gotras, then there were chances that the resulting male can be a victim of such defective gene expression, and any such gene expressions which took place in the 5% exposed area of the Y Chromosome would be fatal for the continuity of that Y Chromosome. Even after hundreds of generations there would still be chances of any defective genes being propagated within these successive generations, and marriage within the same Gotra would provide a golden opportunity for these genes to express themselves, there by causing the genetic abnormality in the offspring.
And hence the ancient Vedic Rishis created the Gotra system where they barred marriage between a boy and a girl belonging to the same Gotra no matter how deep the lineage tree was, in a bid to prevent inbreeding and completely eliminate all recessive defective genes from the human DNA.

Why only the selected list of Rishis as root Gotras? Why not somebody else?

When we look at the list of the Gotrakarni Rishis (ie the root Gotras), you may note that almost all of these Rishis are also Prajapatis – Prajapatis are those who were the immediate descendants of Brahma (the Creator God) – who then went on to create their own progeny or lineage.
So having the Gotra system start from the very beginning of human lineage looks more apt and logical as this is where the chromosomes and genes are still pure and free of any possible genetic defects. Hence the Prajapatis were selected as the root of the Gotra System.
Note that genetic defects or disorders or bad genes get eventually picked up over time during evolution due to genetic mutations.