एक समय की बात है, एक युवक हरिद्वार गया, वो एक आश्रम मे रुका, वहां के सन्यासी से वो पूछता था कि ईश्वर कैसे मिलेंगे, वो सन्यासी बहुत कम बोलते थे। उनके शब्द भी एक ही तरह के होते थे। युवक कुछ दिन रुका और एक रात उसने सोच लिया कि यहां कुछ नही मिलने वाला, कल सुबह मैं किसी दूसरे आश्रम मे चला जाउंगा, पर उस रात ऐसी घटना घटी कि वो युवक ताउम्र वहीं का हो गया।
उस रात एक और सन्यासी उस आश्रम मे आये, उन्होने करीब 2 घन्टे प्रवचन दिये, सारे लोग मन्त्रमुग्ध हो कर सुनते रहे। वो युवक भी उस सन्यासी से काफ़ी प्रभावित हुआ कयोंकि उन्होने पुरान, उपनिशद इत्यादि का सुक्ष्म विश्लेशण किया था। प्रवचन के बाद उन सन्यासी ने आश्रम के सन्यासी से पूंछा कि कैसे रहे प्रवचन। तो वो बुज़ुर्ग सन्यासी बोले "कि मैं 2 घन्टे तुम्हे देखता रहा, तुम तो कुछ बोले हि नही।" वो सन्यासी बड़ा हैरान हुआ, उसने कहा कि आप कैसी बात करते हैं, आपने सुना नही। सन्यासी बोले "मैने कुछ गीता सुनी, कुछ उपनिशद सुने, पर वो तो लिखी लिखाई बातें हैं, ये तो तुमने रट लिया और उगल दिया।
पोथी पढ पढ जग मुआ, पन्डित भया ना कोए, ढाई आखर प्रेम का पढे सो पन्डित होए।
हमें जन्म लेते ही समझा दिया जाता है कि तुम हिन्ंदू, तुम सिख, तुम जैन। बचपन से पुराण, उपनिशद, गुरुग्रंथ इत्यादि बताये जाते हैं, और हम वही हो जाते हैं। पर किसी के द्वारा होने और खुद खोजने मे बहुत बढ़ा अंतर है। बुध, महावीर, कृष्ण, नानक आदि ने खुद पाया, किसी रटी रटाई बात को लकीर समझ कर उसका अनुकरण नही किया। गुरु नानक जी ने एक ओमकार सतनाम को समझा ना कि पोथियां रटीं। बुध ने बोधि व्रक्ष के नीचे बैठ कर आत्म चिंतन किया और पाया।
कोई पंडित कभी प्रभू के द्वार पर नही पहुंचा, और जब वह खुद नही पहुंचा तो दूसरों को उस तक पहुंचाने का रास्ता कैसे दिखा सकता है। ये तो वही बात हुई कि खुद चौराहे पर खढा है और रास्ता गूगल अर्थ से खोज रहा है, और आने जाने वालों को विश्वास के साथ वहां का रास्ता बता रहा है.......
शेष बाद में........
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